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गुरुदेव बी रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्य
उम परिपद् में पर्वत का अर्थ मान्य नहीं हुआ। वह क्रुद्ध होकर वहां से चला गया। उसने महाकाल असुर से मिलकर जाल रचा। स्यान-स्थान पर यह प्रचार शुरू किया-"पशुओ की सृष्टि यज्ञ के लिए की गई है। उनका वध करने से पाप नही होता, किन्तु स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं।" राजा सगर को विश्वास दिलाकर पर्वत ने साठ हजार पशु यन के लिए प्राप्त किए। मन्त्रोच्चारण पूर्वक उन्हे यन-कुण्ड मे डालना शुरू किया । महाकाल असुर ने दिखाया कि वे सव पशु विमान में बैठकर सदेह स्वर्ग जा रहे हैं। उन माया में लोग मूढ हो गए । यज्ञ मे मरने को स्वर्ग प्राप्ति का उपाय मानने लगे।' राजा वसु की सभा में भी नारद और पर्वत का विवाद हुआ। राजा वसु ने पर्वत की मां (अपने गुरु की पत्नी) के आग्रह से पर्वत का पक्ष ले 'अन' का अर्थ बकरा किया। उसने कहा-पर्वत जो कहता है, वह स्वर्ग का साधन है । भय-मुक्त होकर सब लोग उमका आचरण करें। इस असत्यवाणी के साथ-साथ वसु का सिंहासन भूमि मे घस गया।'
इन दोनो आख्यानो से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रारम्भ मे वैदिक लोग भी यन मे पशुवलि नहीं देने ये । महाभारत के अनुसार वह देवताओ और उत्तर पुराण के अनुसार महाकाल असुर और पर्वत ब्राह्मण के आग्रह से शुरू हुई।
राजा वसु पहले पशु-यन का विरोधी और अहिंसा प्रिय था । उसने एक वार यज्ञ किया। उसमे किसी पशु का वध नही हुआ । उसने जगल मे उत्पन्न फल-फूल आदि पदार्थ ही देवताओ के लिए निश्चित किए । उम समय देवाधिदेव भगवान नागयण ने प्रसन्न होकर राजा को प्रत्यक्ष दर्शन दिया, किन्तु दूसरे किसी को उनका दर्शन नहीं हुआ ।'
इस प्रकरण से स्पष्ट जात होता है कि वसु अहिंमा-धर्मी और निरागी कामनाओ से मुक्त था। उसने सभव है, परम्परा के निर्वाह के लिए यज्ञ किया। पर उसका यज्ञ-पूर्णत औपवि-यन था। इससे य? भी स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण भी पशु-बलि के नितान्त विरोधी थे । उन्होने वसु को दर्शन इसीलिए दिया कि उसने अपने यज मे पशु-वलि का सर्वथा तिरस्कार किया था।
१ उत्तर पुराण, पर्व ६७ श्लोक ३४३-३६२ २ वही, पर्व ३७, श्लोक ४१३-४३६
सम्भूता . सर्वसम्भारास्तस्मिन राजन् महाक्रतो । न तत्र पशुधातोऽभूत् स राजव स्थितोऽभवत् ॥ अहिल. शुचिरक्षुद्रो निरागी कर्मसस्तुतः । आरण्यकपदोद्भूता भागास्तत्रोपकल्पिता ॥ प्रीतस्ततोऽस्य भगवान देवदेव पुरातन ।
साक्षात् तं दर्शयामास सोऽदृश्योऽन्येन केनचित् ॥ ३ महाभारत शान्तिपर्व, अध्याय ३३६, श्लोक १०-१२
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