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यज्ञ और अहिंसक परम्पराएँ
यज्ञ के प्रकार
यज्ञ के मुख्य तीन प्रकार मिलते है(१) औषधि-यज्ञ-जिसमे फल-फूल आदि का व्यवहार होता। (२) प्राणी-यज्ञ-जिसमे पशु और मनुष्य की बलि दी जाती ।
(३) आत्म-यन-जो आध्यात्मिक व्रत से सम्पन्न होता। १. औषधि-यज्ञ
'अजैर्यष्टव्यम्-इस वैदिक श्रति का अर्थ-परिवर्तन किया गया, तब पशु-बलि प्रचलित हुई । इससे पूर्व औषधि-यज्ञ किए जाते थे। महाभारत का एक प्रसग है-एक बार ब्रह्म-ऋषि यज्ञ के लिए एकत्रित हुए । उस समय देवताओ ने कहा-'अज' से यज्ञ करना चाहिए और इस प्रकरण मे अज का अर्थ 'वकरा ही है। । ब्रह्मर्षियो ने कहा-यज्ञ मे बीजो द्वारा यजन करना चाहिए, यह वैदिक श्रुत है । बीज का नाम ही अज है, वकरे का वध करना उचित नहीं । यह सत्युग चल रहा है, इसमे पशु का वध कैसे किया जा सकता है ? ' देवता और ऋपि सवाद कर रहे थे, इतने मे राजा वसु उस मार्ग से निकला। वह सत्यवादी था। सत्य के प्रभाव से उपरिचर था-आकाश मे चलता था। उसे देख ब्रह्मर्षियो ने देवताओ से कहा-वसु हमारा सन्देह दूर कर देगा। वे सब उसके पास गए । प्रश्न उपस्थित किया। राजा ने दोनो का मत जान अपना निर्णय देवताओ के पक्ष मे दिया। वह जान-बूझकर असत्य बोला, अत ब्रह्मर्षियो ने उसे शाप दिया और वह आकाश से नीचे गिर पाताल मे चला गया।
जैन साहित्य में भी अजैर्यष्टव्यम्-इस विवाद का उल्लेख मिलता है । एक बार साधु-परिषद् मे अज' शब्द को लेकर विवाद उठ खडा हुआ । उस समय ऋषिनारद ने कहा-जिसमें अकुर उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो गई, वैसा तीन वर्ष पुराना जो 'अज' कहलाता है। पर्वत ने इसका प्रतिवाद किया । वह बोला-अज का अर्थ बकरा है।' १ महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३७ । ३-५ २ वही अध्याय ३३७ । ६-१७ 3 उत्तरपुराण, पर्व ६७, श्लोक ३२६-३३२
गच्छत्येव तयो काले कदाचित्साधुससदि । अजोतव्यमित्यस्य वाक्यस्यार्थप्ररूपणे ॥ विवादोऽ भून्महास्तत्र विगताडू रशक्तिकम् । यवबीज त्रिवर्षस्थमज मित्यभिधीयते ॥ तद्विकारेण सप्ताचिर्मुखे देवार्चन विद । वदन्ति यज्ञमित्याख्यदनुपद्धति नारदः॥ पर्वतोप्यजशब्देन पशुभेद. प्रकीर्तितः । यज्ञोऽग्नौ तद्विकारेण होत्रमित्यवदद्विधी. ।।