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यज्ञ और अहिसक परम्पराएं
आचार्य श्री तुलसीजी
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'यज्ञ' भारतीय साहित्य का वडा विश्रुत शब्द है । इसका सामान्य अर्थ था देवपूजा । वैदिक विचारधारा के योग से यह विशेष अर्थ मे रूढ हो गया-वैदिक कर्म-काण्ड का वाचक बन गया। एक समय भारतीय जीवन मे यज्ञ सस्था की धूम थी, आज वह निष्प्राण-मी है । वेद-काल मे उसे बहुत महत्व मिला और उपनिपद्,काल मे उसका महत्व कम होने लगा।
ऋग्वेदकालीन मान्यता थी-"जो यज्ञ रूपी नौका पर सवार न हो सके, वे अधर्मी है, ऋणी है और नीच अवस्था मे दवे हुए है।"
इसके विपरीत मुण्डकोपनिपद् मे कहा गया है-"यज्ञ विनाशी और दुर्वल साधन है । जो मूढ इनको श्रेय मानते है, वे वार-बार जरा और मृत्यु को प्राप्त होते रहते है।"२ यज्ञ का विरोध
श्रमण सस्थाएं अहिंसा-निष्ठ थी, इसलिए वे प्रारम्भ से यज्ञ का विरोध कर रही थी। उसका प्रज्वलित रूप हमे जैन, बौद्ध साहित्य और महाभारत में मिलता है । महाभारत यद्यपि श्रमणो का विचार
'ऋग्वेद सहिता १० । ४४।६
न ये शेकुर्यजिया नावमारूहमी मव ते न्यविशन्त केपयः । 'मुण्डकोपनिषद् १।२।७
प्लावा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा, अष्टादशोक्तमवर येषु कर्म । एतच्छे यो येऽभिनन्दन्ति मूढा, जरामृत्यु ते पुनरेवापि यन्ति ।
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