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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-प्रन्य
गगा और ब्रह्मपुत्र के उद्गम स्थान अलग-अलग हैं । तिस पर भी दोनो महानदियों के प्रवाह अलग, किनारे की वसतियाँ अलग, उनकी भापा और आचार भी अलग-अलग हैं । इस जुदाई मे रत रहने वाले मिलन स्थान की एकता को देख ही नहीं पाते । फिर भी वह एकता तो मच्ची है ही। उसी तरह भिन्नभिन्न प्रभवस्थान से उदभूत विचार प्रवाह भिन्न भिन्न प्रकार से पुष्ट होने से उनके स्थूल आवरण में रत ऐसे अनुगामी, दोनो प्रवाही का समीकरण नही देख पाते, परन्तु वह तथ्य तो अबाधित है । उसको देखने वाले प्रतिभासम्पन्न पुस्प समय-समय पर जन्म लेते ही रहे है, और सो भी उन्ही सब परंपराओ मे । यमण परम्परा का मुद्रालेख समत्व है। फिर भी जैन और बौद्ध जैसी थमण परम्परामो मे ब्रह्मचर्य और ब्रह्मविहार शब्द इतने प्रचलित हुए है कि उनको उन परम्परामओ से अलग किया ही नहीं जा सकता। उसी प्रकार जिनका मुद्रालेख ब्रह्मतत्त्व है, उस वर्ग में भी सम पद ऐसा एकरस हो गया है कि ब्रह्मभाव से में या ब्राह्मी स्थिति मे उमे अलग करना सम्भव ही नही है।
प्राचीन काल से चली आ रही इस परमार्यदृष्टि का उत्तरकाल मे भी सावधानी से पोषण हुआ है। इसलिए जन्म से ब्राह्मण परन्तु मप्रदाय से वौद्ध ऐसे वसुबन्धु ने अभिवर्मकोप में स्पष्ट कहा है कि"श्रामण्यममलो मार्ग. ब्राह्मण्यमेव तत् ।" उसके ज्येप्ठ वन्यु अमग ने भी इसी से मिलती-जुलती सूचना कहीं दी है।
साप्रदायिक कहे जा सकें, ऐसे नरसिंह महेता मे परमार्थदृष्टि की यह परम्परा व्यक्त हुई है। अखिल विश्व में एक ही तत्त्व के रूप में उन्होंने हरि का कीर्तन किया है और फिर उस हरि के भक्त वैष्णवजन के एक लक्षण रूप ममदृष्टि और तृप्णात्याग को कहा है। उसी तरह साम्प्रदायिक माने जाने वाले उपाध्याय यगोविजयजी ने भी कहा है कि समत्व को प्राप्त करना ही ब्रह्मपद की प्राप्ति है।
___ अन्त में इम परमार्थ और व्यवहार दृष्टि का भेद और परमार्य दृष्टि की यथार्थता डा० ए० वी० ध्रुव ने भी दिखाई है। एक ब्राह्मणी के हाथ के भोजन को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा कि यह तो मेरा एक कुटुम्बगत नागर सस्कार है, उसके औचित्य को मैं तर्क-सिद्ध नही मानता, केवल मस्कार का ही अनुसरण करता हूँ। सच्ची दृष्टि का उन्होंने दूसरी जगह निर्देश किया है । जैन आगम मूत्रकृताग की प्रस्तावना लिखते हुए उन्होंने कहा है कि जन (मण) वन विना ब्राह्मण नही बना जा सकता,
और ब्राह्मण वन विना जैन नहीं बना जा मक्ता । तात्पर्य यह कि जैन धर्म का तत्त्व इद्रियो को और मनोवृत्तियों को जीतने में है और ब्राह्मण धर्म का तत्त्व विश्व की विशालता को आत्मगत करने में है।
इन मक्षिप्त निरूपण से हम इतना प्राप्त कर सकते है कि बुद्धि आखिरकार एक ही सत्य पर जा अटकती है और साथ ही यह भी समझ मकत है कि व्यवहार के चाहे जितने भेद और विरोध अस्तित्व में हो, फिर भी परमार्थ दृष्टि कभी लुप्त नहीं होती।
-अनुवादक : रमेश मालवणिया