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ब्रह्म और सम
आचार मार्ग भी ग्रथित हुआ। दूसरी ओर विश्व के मूल मे दृष्ट परम तत्त्व ही व्यक्तिगत जीव है, जीव व्यक्ति परम तत्त्व से भिन्न है ही नहीं, इस प्रकार का अद्वैत भी स्थापित हुआ। और उसी अद्वैत के आधार पर ही अनेक आचारो की योजना भी हुई। गगा और ब्रह्मपुत्र के उद्गम स्थान तो अलग-अलग है, परन्तु अन्त मे वे दोनो प्रवाह एक ही महासमुद्र में जा मिलते है। ठीक उसी प्रकार आत्मलक्षी और प्रकृतिलक्षी दोनो-विचारधाराएं अत में एक ही भूमिका पर आ मिली । भेद अगर कही भी दिखाई देता है, तो वह मात्र शाब्दिक है और ज्यादातर तो वीच मे समय के होने वाले सघर्प से उत्पन्न सस्कारो के कारण ही है।
शाश्वत विरोध परन्तु एकता की प्रेरक परमार्थ दृष्टि
यह सत्य है कि समाज मे, शास्त्रो में, और शिलालेख आदि में भी 'ब्रह्म' और 'सम' के आसपास प्रवर्तित विचार और आचार के भेदो या विरोधो का लेखा-जोखा है, वौद्ध पिटको, जैन आगमो और अशोक के शिलालेखो, तथा दूसरे अनेक ग्रथो मे ब्राह्मण और यमण-इन दोनो वर्गों के उल्लेख हम देखते है । महाभाष्यकार पतजली ने इन दोनो वर्गों का शाश्वत विरोध के रूप में भी निर्देश किया है । फिर भी, जैसा कि ऊपर कहा गया है, वे दोनो प्रवाह अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार एक ही परम तत्त्व का स्पर्श करते है–यदि ऐसा प्रतिपादन किया जाए, तो किस दृष्टि से ? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर दिए विना तत्त्व जिज्ञासा को सतुष्ट नहीं किया जा सकता।
___ वह दृष्टि है परमार्थ की । परमार्थ दृष्टि कुल, जाति, वश, भापा, क्रियाकाण्ड और वेश आदि के भेदों का अतिक्रमण करके वस्तु के मूलभूत स्वरूप को देखती है। अत वह स्वाभाविक रूप से अभेद या समता की ओर झुकती है। व्यवहारजन्य भेद और विरोध सप्रदायो तथा उनके अनुगामियो में प्रवर्तित हुए थे और उसके फलस्वरूप यदा-कदा उनमे सघर्प भी उत्पन्न हुआ था । उस सघपं के सूचक ब्राह्मणश्रमण वर्गों का लेखा-जोखा तो सुरक्षित रहा, परन्तु साथ ही साथ परमार्थ दृष्टि को प्राप्त ऐसे प्राज पुरुपो ने जिस ऐक्य को देखा या अनुभव किया उसका लेखा-जोखा भी अनेक परम्परा के शास्त्रो मे सुरक्षित है । जैन आगम जिनमे कि ब्राह्मण और श्रमण वर्गों के भेद का निर्देश है, उन्ही मे सच्चे ब्राह्मण
और श्रमण वर्गों का समीकरण दिखाई देता है । वौद्ध पिटको मे भी वैसा ही समीकरण है। महाभारत मे व्यास ने स्थान-स्थान पर सच्चे ब्राह्मण की व्याख्या सच्चे श्रमण के रूप मे ही की है। वनपर्व मे अजगर के रूप में अवतीर्ण नहुप ने सच्चा ब्राह्मण कौन ? इस प्रकार का प्रश्न युधिष्ठिर से पूछा था। उत्तर मे युधिष्ठिर के मुख से महर्षि व्यास ने कहा है कि हर जन्म लेने वाला सकर प्रजा है। मनु के शब्दो को उद्धत करके व्यास ने समर्थन किया है कि प्रजामात्र सकरजन्मा है । और सवृत्ति वाला शूद्र भी जन्म के ब्राह्मण से भी उत्तम है । व्यक्ति मे सच्चरित्र और प्रज्ञा के होने पर भी वह सच्चा ब्राह्मण बनता है । यह हुई परमार्थ दृष्टि । गीता मे ब्रह्मपद का अनेक जगह उल्लेख मिलता है। साथ ही सम पद भी उच्च अर्थ मे मिलता है। "पडिता समदर्शिन" यह वाक्य तो सुप्रसिद्ध है। मुत्तनिपात नामक बौद्ध प्रथ मे एक परमट्ठसुत्त है, जिसमे जोर देकर कहा गया है कि दूसरे निम्न या भूठे और मैं श्रेष्ठ यह परमार्थ दृष्टि नहीं है।
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