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ब्रह्म और सम
पूज्यपाद पण्डित सुखलाल जी सघवी
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भारतीय तत्त्व विचार के सम्बन्ध मे निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है, कि उस तत्त्व विचार के अलग-अलग दो उद्गम स्थान है-एक तो है स्वात्मा, और दूसरा प्रकृति । पहला आतर है और दूसरा बाह्य ।
समता का प्रेरक तत्त्व सम
किसो अज्ञात काल मे मनुष्य अपने विषय मे विचार करने के लिए प्रेरित हुआ कि मै खुद क्या हूँ? कैसा हूँ और अन्य जीवो के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है ? ऐसे कई प्रश्न उद्भूत हुए । इनका उत्तर पाने के लिए वह अन्तर्मुख हुआ और अपने सशोधन के परिणाम स्वरूप उसे ज्ञात हुआ कि मैं एक सचेतन तत्त्व हूँ और अन्य प्राणी वर्ग मे भी ऐसी ही चेतना है। इस विचार ने उसे अपने और दूसरे प्राणीवर्ग के बीच समता का दर्शन कराया । उस दर्शन मे से समभाव के विविध अर्थ और उसकी भूमिकाएं तत्त्व-विचार मे सामने आई। बुद्धि के इस प्रवाह को 'सम' के नाम से पहचाना जाता है। ब्रह्म और उसके विविध अर्थ
बुद्धि का दूसरा प्रभवस्थान है, वाह्य प्रकृति । जो लोग विश्वप्रकृति के विविध पहलुओ, घटनाओ और उसके प्रेरक वल की ओर आकर्षित हुए थे, उनको उससे कवित्व की, बल्कि कहना चाहिए कि कवित्वमय चिन्तन की भूमिका मिली । उदाहरणार्थ-ऋग्वेद के जिस कवि ने उपा के उल्लास-प्रेरक और रोमाचकारी दर्शन का सवेदन किया, उसने उषा का गान एक रक्तवस्त्रा तरुणी रूप में उषा सूक्त मे
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