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जैन-बौद्ध दर्शन एक तुलना
प्रतीत्यसमुत्पाद
बौद्ध दर्शन का एक विशिष्ट सिद्धान्त है--प्रतीत्यसमुत्पाद । इसका अर्थ है-सापेक्ष कारणतावाद । अर्थात् किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति । अस्मिन् सति इद भवति । अस्योत्पादादयमुत्पद्यते इति इद प्रत्ययार्थ प्रतीत्य समुत्पादार्थ । ततश्च हेतु प्रत्ययसापेक्षो भावानामुत्पाद प्रतीत्य समुत्पादार्थ । घट की उत्पत्ति मिट्टी, कुभकार, दण्ड, चक्र आदि से होती है। मिट्टी घट का हेतु है और कुभकार, दण्ड, चक्र आदि प्रत्यय हैं । अत हेतु और प्रत्यय की अपेक्षा से होने वाली पदार्थ की उत्पत्ति को प्रतीत्य समुत्पाद कहते है । अविद्या, सस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरामरण ये प्रतीत्यसमुत्पाद के १२ अग है । इन अगो की सज्ञा निदान भी है। इसे भवचक्र भी कहते है। अनेकान्त और स्याद्वाद
अनेकान्त सिद्धान्त जनदर्शन का एक विशिष्ट सिद्धान्त है, जिसे अन्य किसी दर्शन ने नही माना है, लेकिन जिसका मानना आवश्यक ही नही, अनिवार्य है । दूसरे दर्शनो ने अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक-एक धर्म को लेकर उसका प्रतिपादन किया है और जैनदर्शन ने स्याद्वाद के द्वारा उन अनेक दृष्टियो का समन्वय किया है । यदि अन्य दर्शन भी स्याद्वाद सिद्धान्त को अपनाले, तो फिर उनमे कोई विरोध शेष नही रहेगा और आपेक्षिक दृष्टि से उन सबका कथन सत्य सिद्ध हो जाएगा। जैनदर्शन ने वस्तु मे अनेक धर्मों को मानकर स्याद्वाद के द्वारा उनका प्रतिपादन किया है। वस्तु के उन अनेक धर्मों को आपेक्षिक दृष्टि से कथन करने की शैली का नाम स्याद्वाद है । यह स्याद्वाद न तो सशयवाद है और न अनिश्चयवाद किन्तु अपेक्षावाद है । यहाँ 'स्यात्' शब्द एक निश्चित अपेक्षा को बतलाता है । जब हम कहते हैं कि वस्तु स्यात् सत् है और स्यात् असत् तो यहां प्रथम स्यात् का अर्थ है-स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से, तथा दूसरे स्यात् का अर्थ है, परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से । कोई भी वस्तु स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से सत् है और वही वस्तु परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से असत् है । यही स्याद्वाद है । स्याद्वाद के द्वारा विवक्षित किसी एक धर्म का प्रतिपादन मुख्य रूप से होता है तथा अन्य समस्त धर्मों का प्रतिपादन गौण रूप से । इस प्रकार स्यावाद के द्वारा हम विचार के क्षेत्र मे होने वाले समस्त विरोधो और सघर्षों को दूर कर सकते है तथा समस्त दर्शनों मे सामञ्जस्य स्थापित कर सकते है। अनेकान्त और स्याद्वाद-जैनदर्शन की महत्त्वपूर्ण देन है। अनकान्त और स्याद्वाद-जैनदर्शन का प्राण है।
इस प्रकार यहाँ जैन-बौद्ध दर्शन के कुछ प्रमुख विपयो पर सक्षेप में प्रकाश डाला गया है । जिज्ञासुओ को दोनो दर्शनो के सिद्धान्तो को विस्तार से जानने के लिए उनके मौलिक ग्रन्थो का अध्ययन करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही दर्शन का अध्ययन नही करना चाहिए, किन्तु यथामभव और यथाशक्ति इतर दर्शन के ग्रन्थो का भी. अध्ययन करना चाहिए । ऐसा करने से ही हम वास्तविक ज्ञान को प्राप्त कर सकते है । हमे युक्तिवादी होना चाहिए।
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