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________________ जैन-बौद्ध दर्शन एक तुलना हेयोपादेय-तत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदक. ॥ तस्मादनुष्ठेयगत ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीट संख्या परिक्षानं तस्य न. क्वोप युज्यते। दूर पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्ट तु पश्यतु । प्रमाण दूरदर्शी चैदेतान गृध्रानुपास्महे ॥ -प्रमाण वातिक तीर्थकर पद को प्राप्ति के कारण जैन दर्शन मे दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओ को तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण बतलाया गया है । बौद्ध दर्शन मे दान, शील, प्रज्ञा, वीर्य क्षान्ति और समाधि इन छह पारमिताओ को बुद्धत्व प्राप्ति का कारण माना गया है । बुद्ध ने अपने पूर्वजन्मो मे इन पारमिताओ का अभ्यास करके बुद्धत्व को प्राप्त किया था। पारमिता का अर्थ है-पूर्णता । दान की पूर्णता-दान पारमिता है । इस प्रकार छह पारमिताओ की पूर्णता होने पर बुद्धत्व की प्राति होती है । प्रमाणवाद जैन दर्शन मे अपने और अपूर्व पदार्थ के निश्चयात्मक ज्ञान को 'प्रमाण' माना गया है-'स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानंप्रमाणम् ।' बौद्ध दर्शन मे अविसवादी तथा अज्ञात अर्थ को जानने वाले ज्ञान का नाम प्रमाण है-'प्रमाणमविसंवावि ज्ञानमज्ञातार्थ प्रकाशो वा। जैन दर्शन में प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो भेद करके पुन साव्यवहारिक प्रत्यक्ष तथा मुख्य प्रत्यक्ष के भेद से प्रत्यक्ष के दो भेद तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम के भेद से परोक्ष के ५ भेद किए गए है। विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष और अविशद ज्ञान को परोक्ष माना गया है । जैन दर्शन में वास्तविक प्रत्यक्ष उसे ही माना गया है, जो इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है। अत अवधिज्ञान, मन पर्यायज्ञान और केवल ज्ञान को ही मुख्य प्रत्यक्ष माना है। पांच इन्द्रियो से जन्य और मनोजन्य ज्ञान को लोक व्यवहार की अपेक्षा से ही प्रत्यक्ष कहा गया है। प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेष रूप है और ऐसा ही पदार्थ प्रमाण का विषय होता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार कल्पना से रहित और अभ्रान्त ज्ञान का नाम प्रत्यक्ष है-'कल्पनापोढमभ्रान्त प्रत्यक्षम् ।' वस्तु मे नाम, जाति, गुण, क्रिया आदि की योजना करना 'कल्पना' है । प्रत्यक्ष इस कल्पना से रहित अर्थात् निर्विकल्पक होता है । इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष-स्वसवेदन प्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष के भेद से प्रत्यक्ष के चार भेद है। प्रत्यक्ष का विपय स्वलक्षण है और अनुमान का विषय सामान्य लक्षण है । वौद्ध-प्रत्यक्ष और अनुमान-ये दो ही प्रमाण मानते है । १४३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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