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जैन-बौद्ध दर्शन एक तुलना
रूप मे प्रगट हो जाते है । ससारी आत्मा कर्म के वश होकर मनुष्य गति, तिर्यञ्च गति, नरक गति और देवगति–इन चार गतियो मे भ्रमण करता रहता है और काललब्धि आने पर क्रमश कर्मों का नाश करके वह भगवान् भी बन सकता है।
आत्मा के विषय मे बौद्ध दर्शन की मान्यता जैन दर्शन से बिल्कुल विपरीत है। बौद्ध दर्शन ने चित्र (ज्ञान) को तो माना है, लेकिन एक स्वतन्त्र आत्म-द्रव्य को नहीं माना है। रूप, वेदना, सज्ञा, सस्कार और 'विज्ञान' इन पाँच स्कन्धो के समुदाय का नाम ही 'आत्मा' है। इनके अतिरिक्त आत्मा को कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। प्रत्येक आत्मा नामरूपात्मक है। यहाँ रूप से अभिप्राय शरीर के भौतिक भाग से है और नाम से तात्पर्य मानसिक प्रवृत्तियो से है । वेदना, सज्ञा, सस्कार और विज्ञान-ये नाम के ही भेद है। इन पांच स्कन्धो की सन्तान (परम्परा) बराबर चलती रहती है। अत आत्मा के न होने पर भी जन्म, मरण और परलोक की व्यवस्था बन जाती है। आत्मा को न मानने का कारण यह है कि आत्मा का सद्भाव सब अनर्थों की जड है । आत्मा के सद्भाव मे ही अहकार का उदय होता है । आत्मा के होने पर 'स्व' और 'पर' का विभाग होता है। इससे स्व के लिए 'राग' और पर के लिए 'द्वेष' उत्पन्न होता है । और राग-द्वेप के कारण अन्य समस्त दोप उत्पन्न होते है । अत आत्मा समस्त दोपो की उत्पत्ति का कारण है । यथा
आत्मनि सति पर-सज्ञा स्व-पर विभागात् परिग्रह-द्वेषो ।
अनयो' सप्रतिबन्धात् सर्व दोषा. प्रजायन्ते ॥ इस प्रकार सब अनर्थो की जड होने के कारण बौद्ध दर्शन मे आत्मा का निपेध किया गया है। निर्वाण-व्यवस्था
जैन दर्शन मे ससार, ससार के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणो को माना गया है। कर्मों का आत्रव और बन्ध ससार के कारण है, सवर और निर्जरा मोक्ष के कारण है । बौद्ध दर्शन मे इन्ही चार बातो को चार आर्य सत्य के नाम से कहा गया है । दुख, समुदय निरोध और मार्ग–ये चार आर्य सत्य है । ससार दुःखरूप है । दुख के कारण तृष्णा को समुदय कहते है। दुखो के नाश का नाम निरोध या निर्वाण है और निरोध के उपाय का नाम मार्ग है। इस प्रकार दोनो दर्शनो मे निर्वाण को माना गया है । जैन दर्शन के अनुसार कर्मों के नाश होने पर आत्मा की शुद्ध अवस्था का नाम निर्वाण या मोक्ष है। मोक्ष मे आत्मा अनन्तकाल तक अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख तथा वीर्य सम्पन्न रहता है । बौद्ध दर्शन के अनुसार निर्वाण के स्वरूप मे बडा विवाद है। हीनयान के अनुसार निर्वाण मे क्लेशावरण का ही अभाव होता है, किन्तु महायान के अनुसार निर्वाण मे शेयावरण का भी अभाव हो जाता है । एक दुखाभावरूप है, तो दूसरा आनन्द रूप। भदन्त नागसेन की सम्मित मे निर्वाण के बाद व्यक्तित्व का सर्वथा लोप हो जाता है । निर्वाण का अर्थ है-बुझ जाना । जब तक दीपक जलता रहता है, तभी तक उसकी सत्ता है, और दीपक के बुझ जाने पर उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाती है । पञ्च स्कन्ध की सन्तान रूप आत्मा का भी निर्वाण दीपक की तरह ही है। महाकवि अश्व घोष का कहना है