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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ बौद्ध दर्शन में स्वलक्षण और सामान्य लक्षण के भेद से दो तत्त्व मानकर भी यथार्थ मे स्वलक्षण को ही परमार्थ सत् माना गया है और सामान्य लक्षण को मिथ्या माना गया है। वस्तु मे दो प्रकार का तत्त्व देखा जाता है । असाधारण और साधारण । प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी विशेषता को लिए हुए है, यही असाधारण (स्वलक्षण) तत्त्व है । सव मनुष्यो मे मनुष्यत्व नामक एक साधारण धर्म की कल्पना की जाती है, अत मनुष्यत्व मनुष्यो का साधारण धर्म है । वौद्ध दर्शन के अनुसार वस्तु का लक्षण-अर्थक्रिया कारित्व है। वस्तु वह है, जो अर्थक्रिया करे-'अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वाद्वस्तुन ।' घट को अर्थक्रिया जल धारण है, पट की अर्थक्रिया आच्छादन है। इस प्रकार प्रत्येक अर्थ की अपनी-अपनी अर्थक्रिया होती है। यह अर्थक्रिया स्वलक्षण मे ही बनती है, सामान्य मे नही। घटत्व मे कभी भी जलधारण रूप अर्थक्रिया सम्भव नहीं है, अत सामान्य मिथ्या है । जैन दर्शन मे पदार्थ को सत् माना गया है तथा उस सत् के विपय मे कोई विवाद नहीं है । किन्तु बौद्ध दर्शन मे सत् की व्याख्या को लेकर बौद्ध दार्शनिको मे मुख्य रूप से चार भेद पाए जाते हे-वैभापिक, सौत्रान्तिक, योगाचार तथा माध्यमिक । वैभापिक वाह्यार्थ की सत्ता मानते है तथा उसका प्रत्यक्ष भी मानते है । सौत्रान्तिक वाह्यार्थ की सत्ता मानकर भी उसे प्रत्यक्ष न मानकर अनुमेय मानते है । योगाचार के अनुसार ज्ञानमात्र ही तत्त्व है और माध्यमिको के अनुसार शून्य की ही प्रतिष्ठा है । इन चारो सिद्धान्तो का वर्णन निम्न श्लोक मे सुन्दर रूप से किया गया है मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिल शून्यस्य मेने जगत, योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासा विवर्तोऽखिल.। अर्थोऽस्ति क्षणिकरत्वसावनुमितो बुद्धयेति सौत्रान्तिक , प्रत्यक्ष क्षणभङ्गर च सकलं वैभाषिको भाषते ॥ यहां यह ज्ञातव्य है कि अन्य दार्शनिको ने 'शून्य' शब्द का अर्थ 'अभाब' किया है, किन्तु माध्यमिक दर्शन के आचार्यों के मौलिक ग्रन्थो के अनुशीलन से शून्य का अभाव रूप अर्थ सिद्ध नहीं होता है । किसी पदार्थ के स्वरूप निर्णय के लिए अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभय-इन चार कोटियो का प्रयोग सम्भव है। परन्तु परमार्थ तत्त्व का विवेचन इन चार कोटियो से नहीं किया जा सकता। अत अनिर्वचनीय होने के कारण परमार्थ तत्त्व को शून्य शब्द से कहा गया है । यथा न सन् नासन न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्त तत्व माध्यमिका विदु.॥ -माध्यमिक कारिका ११७ प्रात्म-व्यवस्था जैन दर्शन आत्मा को चैतन्य मानकर अनादि और अनन्त मानता है। आत्मा का स्वभाव अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य है। ससार अवस्था मे कर्मों के द्वारा आवृत्त होने के कारण इन गुणो का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है । लेकिन कर्मों के नाश होने पर ये गुण अपने स्वाभाविक १४०
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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