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________________ जैन-बौद्ध दर्शन एक तुलना ३. दोनो ही दर्शन हिसा के अनुयायी है। यद्यपि अन्य दर्शनो ने भी अहिंसा को माना है लेकिन बुद्ध और महावीर ने यज्ञ-विहित हिसा का निषेध करके अहिंसा को विशेष रूप से प्रतिष्ठित किया है। महावीर ने तो प्राणीमात्र के प्रति हिंसा को त्याज्य बतलाकर तयों काम, क्रोध, लोम आदि को भी हिंसा बतलाकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म अहिसा का प्रतिपादन किया है। ४ दोनो ही दर्शन कर्म (कार्य) के अनुसार वर्ण-व्यवस्था को मानते है, न कि जन्म के अनुसार । वैदिक दर्शन ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चार वर्णों की व्यवस्था को जन्म के द्वारा माना है। लेकिन जैन-बौद्ध दर्शन के अनुसार कोई जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण या क्षत्रिय नहीं कहला सकता है, किन्तु ब्राह्मण या क्षत्रिय के कार्य करके ही वैसा बन सकता है। ५ दोनो ही दर्शन सब मनुष्यो मे समानता के प्रतिपादक है । सब मनुष्य समान है, सवको अपना अमना विकास करने का अधिकार है, कोई उच्च या नीच नही है तथा स्त्री और शूद्र को भी ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है। ६ दोनो ही दर्शन वेद को पौरुषेय मानते हैं। मीमासको ने वेद को अपौरुषेय माना है। दोनो ही दर्शनो ने मीमासको की इस मान्यता का सप्रमाण खण्डन करके वेद को पौरुषेय सिद्ध किया है। ७ दोनो ही दर्शन ईश्वर को सृष्टिकर्ता नही मानते है । नैयायिक-वैशेषिक दर्शन की मान्यता है कि इस विश्व की सृष्टि एक ऐसे ईश्वर के द्वारा हुई है, जो नित्य, व्यापक और सर्वज्ञ है। दोनो ही दर्शनो ने प्रबल प्रमाणो के आधार पर सृष्टि कर्तृत्व का खण्डन करके सिद्ध किया है कि यह ससार अनादि परम्परा से इसी प्रकार चला आया है और इसका रचयिता ईश्वर नहीं है। ८ दोनो ही दर्शन शुभ और अशुभ कर्मो का फल मानते है तथा परलोक मे विश्वास रखते है । दोनों दर्शनो मे तत्त्व व्यवस्था जैन दर्शन मे द्रव्य या वस्तु का लक्षण सत् बतलाया गया है और उत्पाद, व्यय तथा प्रौव्य से सहित वस्तु को सत् कहा गया है--सद्व्य लक्षणम् उत्पाद व्यय प्रीव्य युक्तं सत् । प्रत्येक पदार्थ त्रयात्मक है। एक पर्याय का नाश होते ही दूसरी पर्याय उत्पन्न हो जाती है तथा उन दोनो पर्यायो मे एक तत्त्व अविच्छिन्न रूप से बना रहता है। यह बात अनुभव मे भी आती है। हम देखते है कि स्वर्ण के चूडा को तुड़वाकर जब हम उसका कुण्डल बनवा लेते हैं तो चूड़ारूप पर्याय का नाश, कुण्डलरूप पर्याय की उत्पत्ति और उन दोनो मे स्वर्णरूप द्रव्य की अविच्छिन्नता दृष्टिगोचर होती है । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से द्रव्य छह है और प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और धोव्य रूप है। मूल मे जीव और अजीव-ये दो ही द्रव्य है । जीव और अजीव के सयोग और वियोग जन्य कुछ ऐसी पर्याय उत्पन्न होती है जिन्हें तत्त्व के नाम से कहा गया है। अत जैन दर्शन मे तत्त्व ७ माने गए हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष । इन्ही मे पुण्य और पाप को मिलाकर पदार्थ कहे गए हैं। १३६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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