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जैन-बौद्ध दर्शन एक तुलना भेद का कारण क्या है। इस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है कि अनन्त धर्मात्मक वस्तु को विभिन्न ऋषियो ने अपने अपने दृष्टिकोण से देखने का प्रयल किया और तदनुसार ही उसका प्रतिपादन किया। अत यदि हम 'दर्शन' शब्द का अर्थ भावनात्मक साक्षात्कार के रूप मे ग्रहण करे, तो उपर्युक्त प्रश्न का समाधान हो सकता है । क्योकि विभिन्न ऋषियो ने अपने-अपने दृष्टिकोणो से वस्तु के स्वरूप को जानकर उसी का बार-बार मनन और चिन्तन किया और इसके फलस्वरूप उन्हे अपनी-अपनी भावना के अनुसार वस्तु के स्वरूप का दर्शन हुआ । भावना के द्वारा वस्तु के स्वरूप का स्पष्ट प्रतिभास होता है, यह बात अनुभव से सिद्ध है । काम, शोक, भय, उन्माद आदि के वशीभूत होकर मनुष्य अविद्यमान पदार्थों को सामने विद्यमान सरीखे देखते है । कहा भी है
काम-शोक-भयोन्माव-चौर-स्वप्नायु पप्लुता ।
अभूतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ॥ -प्रमाण वार्तिक २ । २१२ कारागार मे बन्द कामी पुरुष रात्रि के गहन अन्धकार मे आँखो के बन्द होने पर भी कान्ता की सतत भावना के द्वारा कान्ता के मुख को स्पष्ट देखता है। यथा
पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखान-दुर्भध।
मयि च निमीलित नयने तथापि कान्तानन व्यक्तम् ॥ भारतीय दर्शन मे जैन-बौद्ध दर्शन का स्थान
भारतीय दर्शन को हम दो भागो मे विभक्त कर सकते है-वैदिक दर्शन, और अवैदिक दर्शन । वेद की परम्परा मे विश्वास रखने वाले न्याय, वैशेषिक, साख्य, योग, मीमासा और वेदान्त-ये छह दर्शन वैदिक दर्शन है । तथा वेद को प्रमाण न मानने के कारण चार्वाक, वौद्ध और जैन-ये तीन दर्शन अवैदिक दर्शन है। कुछ लोग जैन और वौद्ध दर्शन को वैदिक दर्शन की शाखा के रूप में ही स्वीकार करते है, उनकी ऐसी मान्यता ठीक नहीं है । क्योकि ऐतिहासिक खोजो के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि श्रमण परम्परा के अनुयायी उक्त दोनो धर्मों और दर्शनो का स्वतन्त्र अस्तित्व है । भारतीय दर्शन के विकास मे जैन-दर्शन और बौद्ध-दर्शन ने महत्वपूर्ण योग दिया है। यदि भारतीय दर्शन मे से उक्त दोनो दर्शनो को पृथक कर दिया जाए तो भारतीय दर्शन में एक बहुत बडी कमी दृष्टिगोचर होगी। जैन-दर्शन का प्रारम्भ और विकास
__ जैन-दर्शन की मान्यतानुसार जैन-दर्शन की परम्परा अनादि काल से प्रवाहित होती चली आ रही है । इस युग मे आदि तीर्थकर ऋपभनाथ से लेकर चौबीसवे तीर्थकर महावीर पर्यन्त २४ तीर्थकरो ने कालक्रम से जैन-दर्शन और धर्म के सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया है। जो लोग जैन-दर्शन को अनादि नही मानना चाहते है, उन्हे कम से कम जैन दर्शन को उतना प्राचीन तो मानना ही पड़ेगा, जितना प्राचीन और कोई दूसरा दर्शन है । आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, अकलङ्क, विद्यानन्दि, माणिक्यनन्दि,