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________________ जैन-दर्शन मे सप्तभगीवाद का अभिप्राय है-प्रश्न का उत्तर एकाशवाद मे नही, परन्तु विभाग करके अनेकाशवाद मे देना । इस वर्णन पर से विभज्यवाद और एकाशवाद का परस्पर विरोध स्पष्ट हो जाता है । परन्तु वुद्ध सभी प्रश्नो के उत्तर मे विभज्यवादी नही थे। अधिकतर वे अपने प्रसिद्ध अव्याकृतवाद का ही आश्रय ग्रहण करते है। जैन आगमो मे भी "विभज्यवाद' शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। भिक्षु कैसी भाषा का प्रयोग करे? इसके उत्तर मे' सूत्रकृताग मे कहा गया है कि उसे विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए। मूलसूत्रगत विभज्यवाद' शब्द का अर्थ, टीकाकार शीलाक 'स्याद्वाद' और 'अनेकान्तवाद' करते है । वुद्ध का विभज्यवाद सीमित क्षेत्र मे था, अत. वह व्याप्य था। परन्तु महावीर का विभज्यवाद समग्र तत्वदर्शन पर लागू होता था, अत व्यापक था। और तो क्या, स्वय अनेकान्त पर भी अनेकान्त का सार्वभौम सिद्धान्त घटाया गया है। आचार्य समन्तभद्र कहते है, "अनेकान्त भी अनेकान्त है। प्रमाण अनेकान्त है और नय एकान्त ।" इतना ही नहीं, यह अनेकान्त और एकान्त सम्यग् है या मिथ्या हैइस प्रश्न का उत्तर भी विभज्यवाद से दिया गया है। आचार्य अकलक की वाणी है --अनेकान्त और एकान्त दोनो ही सम्यक् और मिथ्या के भेद से दो-दो प्रकार के होते है। एक वस्तु मे युक्ति और आगम से अविरुद्ध परस्पर विरोधी से प्रतीत होने वाले अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला सम्यग् अनेकान्त है, तथा वस्तु मे तद् वस्तु स्वरूप से भिन्न अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करना केवल अर्थशून्य वचन विलास मिथ्या अनेकान्त है। इसी प्रकार हेतु-विशेप के सामथ्र्य से प्रमाण-निरुपित वस्तु के एक देश को ग्रहण करने वाला सम्यग् एकान्त है और वस्तु के किसी एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य अशेप धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकान्त है, अर्थात् नय सम्यग् एकान्त है और दुर्नय मिथ्या एकान्त है। जैन-दर्शन का यह अनेकान्तरूप ज्योतिर्मय नक्षत्र मात्र दार्शनिक चर्चा के क्षितिज पर ही चमकता नहीं रहा है। उसके दिव्य आलोक से मानव जीवन की प्रत्येक छोटी-बडी साधना प्रकाशमान है। छेद सूत्र, मूल, उनकी चूणियां और उनके भाष्यो मे उत्सर्ग और अपवाद के माध्यम से साध्वाचार का जो सूक्ष्म तत्वस्पर्शी चिन्तन किया गया है, उसके मूल मे सर्वत्र अनेकान्त और स्याद्वाद का ही स्वर मुग्वर है । किबहुना, जैन-दर्शन मे वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन सर्वत्र अनेकान्त और स्याद्वाद के माध्यम से ही हुआ है, जो अपने आप मे सदा सर्वथा परिपूर्ण है । यह वाद व्यक्ति, देश और काल से अबाधित है, अतएव अनेकान्त विश्व का अजर, अमर, शाश्वत और सर्वव्यापी सिद्धान्त है। १ विभज्ज वाय च वियागरेन्जा-सूत्रकृताग १, १४, २२ २ अनेकातोप्यनेकान्तः, प्रमाण-नय साधन.--स्वयम्भू स्तोत्र 'तत्त्वार्षराजवातिक १,६,७
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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