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गुन्टेन श्री ल्ल नुनि स्मृति-ग्रन्य
प्राचीन काल से ही विचार वर्ग के विषय रहे हैं। टिक नाल में जगन् के सम्बन्ध मे सन् और असन् हनने परस्पर विरोधी हो कल्पनाओ का सष्ट उन्नब है। जगन् सन है या अन् ?-उस विषय में उनिग्रहों में भी विचार उपतन्त्र होते हैं। वहीं पर सन् और अनन् नी उभयता और अनुभयरूपता में गन् नागारमा उल्लेख नी प्राप्त होने हैं। अनन्य वो उपनिपन्नाहित्य का एक मुल्य
है. यह निविगत ही है। बुद्ध में विजयवाद और अव्याकृतबाट में भी उन्कार पलों का उन्लव मिलना है। महावीर कानोन तत्त्व-चिन्तक मजय अन्नानवाद में नी उक बार पनों की उपलब्धि होती है। नगगन नहागर ने अपनी निगान एवं तन्त्र-पशिगी दृष्टि से वन्नु के विराट् रुप को देखकर न्हा उ ज गर न ही नहीं, अपिनु एक-एक बन्नु से अनन्न पन है, अनन्त विकल्प हैं, अनन्त बन हैं। जिन की प्रगक वनु अनन्त माना है। अतएव नगगन नहावीर ने उक्त चतुष्कोटि ने विनमन वन्तुगत प्रजन के लिए सुप्त नगी ना और इस प्रकार अनन्त धमों के लिए अनन्त सप्तगीन प्रतिपादन करकं तु गंध का सर्वग्राही एक वैज्ञानिक रूप प्रस्तुत किया ।
गगन नहागर से पूर्व उनिपटने में वन्नु-तत्व के उसद्वाड को लेकर विचारणा प्रारम्न हो वृी थी, पन्नु उनका गस्तविक निगंय नहीं हो मना ! संजय ने उसे अन्नान कहकर टालने का प्रयन्न यिा। बुद्ध ने बु गावों में विभज्यबाट कयन करके मेट वानों में व्याकृत न्हकर मौन स्वीकार मिया । परन्तु भगवान महावीर ने बस्तु वदप के प्रतिपादन ने वर्णनण्ट के अनिश्चयगद का, अजय के ब्जानगढ़ और बुद्ध के एगन एव जामिन अव्यासबाट मो गंगर नहीं किया । क्योकि तत्व चिन्तन के क्षेत्र में निमी वस्तु को केवल अच्गकृत अथ्वा अनात कह ने भन्ने समाधान नहीं होता।
नए उन्होंने अपनी तारिक दृष्टि और तर्क-मूलक दृष्टि से तु वल्प का पयार्थ और सप्ट निय गि। उनी उन निर्णय-गन्ति के प्रतिफल है-अनकानबाट, नयाद, स्याहाट और उजनंगीगा।
विभन्यवाद
एक बार बुद्ध के शिष्य शुनमागम ने बुद्ध ने पूछा-'नने ! सुना है कि गृहल्य ही आरावक होता है.जित आगमन नहीं होगा। आप क्या अनित्राय है?" बुद्ध ने इसका जो उत्तर दिया व्ह नगन्न निनाय (बुन, ६, ६.) ने उपलब्ध है उन्होंने कहा-"नाणत्रक ! ने यहाँ बिनव्यवादी है, एम्ग ही नहीं है।' इस प्रसग पर बुद्ध ने अपने आपको विभज्यवादी स्वीकार किया है। विभज्यवाद
- एक सद्द विप्रा बहुधा वदन्ति, ऋग्वेद १, १४, ४६
महसन दोनों के लिए देखिए ऋग्वेद १०, १२६ र मदेव सौम्येदमन आसीन-छान्दोग्योपनिषद् ,.
असदेवरमप्र मानीन–बही, ३, १६ १ ३ यतो वाचो निवर्तन्ते-तैत्तिरीय २,४
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