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________________ जैन-दर्शन में सप्तभगीवाद सकलता-विकलता का विचार भेद आचार्य सिद्धसेन और अभयदेव सूरि ने "सत्, असत् और अवक्तव्य" इन तीन भगो को सकलादेशी और गेप चार भगो को विकलादेशी माना है।' न्यायावतार-सूत्रवातिक वृत्ति में आचार्य शान्तिसूरि ने भी "अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य" को सकलादेश और शेष चार को विकलादेश कहा है। उपाध्याय यगोविजय ने जैन-तर्क भापा और गुरुतत्त्व-विनिश्चिय मे उक्त परम्परा का अनुगमन न करके मातो भगो को सकलादेशी और विकलादेशी माना है। परन्तु अपने अष्ट सहनी विवरणो मे उन्होंने तीन भगो को सकलादेशी और शेप चार को विकलादेशी स्वीकार किया है। अकलक और विद्यानन्द आदि प्राय सभी दिगम्बर जैनाचार्य सातो ही भगो का सकलादेश और विकलादेश के रूप मे उल्लेख करते हैं। सत् असत् और अक्तव्य भगो को सकलादेशी और शेप चार भगो को विकलादेशी मानने वालो का यह अभिप्राय है, कि प्रथम भग मे द्रव्याथिक दृष्टि के द्वारा "सत्" रूप से अभेद होता है, और उसमे मम्पूर्ण द्रव्य का परिवोध हो जाता है । दूसरे भग में पर्यायाथिक दृष्टि के द्वारा समस्त पर्यायो मे अभेदोपचार से अभेद मानकर असत् स्प से भी समस्तद्रव्य का ग्रहण किया जा सकता है, और तोमरे अवक्तव्य भग मे तो मामान्यत भेद अविवक्षित ही है । अत सम्पूर्ण द्रव्य के ग्रहण में कोई कठिनाई नहीं है। उक्त तीनो भग अभेदस्पेण समग्र द्रव्य-ग्राही होने से सकलादेगी है। इसके विपरीत अन्य गेप भग स्पष्ट ही सावयव या अग्राही होने में विकलादेशी है । सातवे भग में अस्ति आदि तीन अग है, और गेप मे दो-दो अश। इस सदर्भ में आचार्य शान्तिसूरि ने लिखा है-"ते च स्वावयवापेक्षया विकलावेशा." परन्तु आज के कतिपय विचारक उक्त मत भेद को कोई विशिष्ट महत्व नही देते । उनकी दृष्टि में यह एक विवक्षाभेद के अतिरिक्त कुछ नही है। जब कि एक सत्व या असत्व के द्वारा समग्र वस्तु का ग्रहण हो सकता है, तब सत्त्वासत्त्वादि रूप से मिश्रित दो या तीन धर्मों के द्वारा भी अखण्ड वस्तु का वोध क्यो नही हो सकता ? अत सातो ही भगो को सकलादेशी और विकलादेशी मानना तर्क-सिद्ध राजमार्ग है। सप्तभंगी का इतिहास भारतीय दर्शनो मे विश्व के सम्बन्ध के सत्, असत्, उभय और अनुभय-ये चार पक्ष बहुत १५० सुखलाल जी और प० बेचरदास जी द्वारा सपावित-सन्मति तर्फ, सटोफ पृ० ४४६ ५० दलसुख मालवणिया सपादित, पृ०६४ 3 पृष्ठ २०० • न्यायावतार सूत्र वातिक वृत्ति-०६४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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