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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
अथवा भेदोपचार' होता है और अस्ति या नास्ति आदि किसी एक शब्द के द्वारा द्रव्यगत अस्तित्व या नास्तित्व आदि किसी एक विवक्षित गुण-पर्याय का क्रमश मुख्यरूप से निरूपण होता है। विकलादेश (नय) वस्तु के अनेक धर्मों का क्रमश निरूपण करता है और सकलादेश (प्रमाण) सम्पूर्ण धर्मों का युगपत् निरूपण करता है। सक्षेप में इतना ही विकलादेश और सकलादेश मे, अर्थात् नय और प्रमाण मे अन्तर है। प्रमाण सप्तभगी मे अभेद वृत्ति या अभेदोपचार का और नय मप्तभगी मे भेद वृत्ति या भेदोपचार का जो कथन है, उसका अन्तर्मम यह है कि प्रमाण सप्तभगी मे जहाँ द्रव्याथिक भाव है, वहां तो अनेक धर्मों मै अभेद वृत्ति स्वत है और जहाँ पर्यायर्थिक भाव है वहाँ अभेद का उपचार आरोप करके अनेक धर्मो मे एक अखण्ड अभेद प्रस्थापित किया जाता है। और नय सप्तमगी मे जहाँ द्रव्यायिकता है, वहाँ अभेद मे भेद का उपचार करके एक धर्म का मुख्यत्वेन निरूपण होता है, और जहाँ पर्यायार्थिकता है, वहां तो भेदवृत्ति स्वय सिद्ध होने से उपचार की आवश्यकता नहीं होती।
व्याप्य-व्यापक-भाव
स्यावाद और सप्तभगी मे परस्पर क्या सम्वन्ध है ? यह भी एक प्रश्न है। दोनो मे व्याप्यव्यापक भाव सम्बन्ध माना जाता है । स्याद्वाद 'व्याप्य' है और सप्तभगी 'व्यापक । क्योकि जो स्याद्वाद है, वह सप्तभगी होता ही है, यह तो सत्य है। परन्तु जो सप्तभगी है, यह स्याद्वाद है भी और नही भी। नय स्याद्वाद नहीं है, फिर भी उसमे सप्तमगीत्व एक व्यापक धर्म है। जो स्याद्वाद और नय-दोनो में रहता है । "अधिक वेश-वृत्तित्व व्यापकत्वम् अल्प देश वृत्तित्व ब्याप्यत्वम् ।" अनन्त भंगी क्यो नहीं ?
सप्तभगी के सम्बन्ध मे एक प्रश्न और उठता है और वह यह है कि जब जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु मे अनन्त धर्म है, तव सप्तभगी के स्थान पर अनन्त भगी स्वीकार करनी चाहिए, सप्तभगी नहीं ? उक्त प्रश्न का समाधान यह है कि प्रत्येक वस्तु मे अनन्त धर्म है, और उसके एक-एक धर्म को लेकर एक-एक सप्तभगी बनती है। इस दृष्टि से अनन्त सप्तमगी स्वीकार करने मे जैन दर्शन का कोई विरोध नहीं है, वह इसको स्वीकार करता है। किन्तु वस्तु के किसी एक धर्म को लेकर, एक ही सप्त भगी वन सकती है, अनन्त भगी नहीं। इस प्रकार जैन-दर्शन को अनन्त सप्त भगी का होना, तो स्वीकार है, परन्तु अनन्त भगी स्वीकार नहीं है।
१ सकलादेशो हि योगपद्येन अशेषधर्मात्मक वस्तु कालादिभिरभेदवृत्या प्रतिपादमति, अभेदोपचारेण वा, तस्य प्रमाणाधीनत्वात् । विकलादेशस्तु क्रमेण भेदोपचारेण, भेद-प्राधान्येन वा, तस्य नयायत्तत्वात् ।
-तत्त्वार्यश्लोक वार्तिक १, ६, ५४ 'प्रतिपर्याय सप्तभगी वस्तुनि-इति वचनात् तथाऽनन्ता. सप्तभंग्यो भवेयुरित्यपि नानिष्टम् ।
-तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १, ६, ५२