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________________ जैन-दर्शन मे सप्तभगीवाद २ पर्याय-दृष्टि से वस्तुगत गुणो का आत्मरूप भी भिन्न-भिन्न है । यदि अनेक गुणो का आत्मस्वरूप भिन्न न माना जाए, तो गुणो मे भेद की बुद्धि कैसे होती है ? एक आत्म-स्वरूप वाले तो एक-एक ही होगे, अनेक नहीं। आत्म-स्वरूप से भी अभेद नहीं, भेद ही सिद्ध होता है। ३ नाना धर्मों का अपना-अपना आश्रय अर्थ भी नाना ही होता है। यदि नाना गुणो का आधार भूत पदार्थ अनेक न हो, तो एक को ही अनेक गुणो का आश्रय मानना पडेगा, जो कि तर्क-सगत नही है। एक का आधार एक ही होता है। अत अर्थ-भेद से भी सब धर्मों में भेद है। ४ सम्बन्धियो के भेद से सम्बन्ध मे भी भेद होता है। अनेक सम्बन्धियो का एक वस्तु मे एक सम्बन्ध घटित नही होता । देवदत्त का अपने पुत्र से जो सम्बन्ध है, वही पिता, भ्राता आदि के साथ नहीं है । अत भिन्न धर्मों मे सम्बन्ध की अपेक्षा से भी भेद ही सिद्ध होता है, अभेद नही। ५ धर्मों के द्वारा होने वाला उपकार भी वस्तु मे पृथक्-पृथक् होने से अनेक रूप है, एक रूप नहीं। अत उपकार की अपेक्षा से भी अनेक गुणो मे अभेद (एकत्व) घटित नही होता। ६ प्रत्येक गुण की अपेक्षा से गुणी का देश भी भिन्न-भिन्न ही होता है। यदि गुण के भेद से गुणी मे देश भेद न माना जाए, तो सर्वथा भिन्न दूसरे पदार्थो के गुणो का गुणी देश भी अभिन्न ही मानना होगा। इस स्थिति में एक व्यक्ति के दुःख, सुख और ज्ञानादि दूसरे व्यक्ति मे प्रविष्ट हो जाएंगे, जो कि कथमपि इष्ट नहीं है। अत गुणी देश से भी धर्मों का अभेद नही, किन्तु भेद ही सिद्ध होता है। ७ ससर्ग भी प्रत्येक ससर्ग वाले के भेद से भिन्न ही माना जाता है। यदि सम्बन्धियो के भेद के होते हुए भी उनके ससर्ग का अभेद माना जाए, तो फिर ससगियो (सम्बन्धियो) का भेद कैसे घटित होगा? लोक-व्यवहार में भी दान्तो का मिश्री, पान, सुपारी और जिह्वा के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार का ससर्ग होता है एक नहीं। अत ससर्ग से भी अभेद नही, भेद ही सिद्ध होता है। . प्रत्येक वाच्य (विषय) की अपेक्षा से वाचक शब्द भिन्न-भिन्न होते है। यदि वस्तुगत सम्पूर्ण गुणो को एक शब्द के द्वारा ही वाच्य माना जाए, तब तो विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों को भी एक शब्द के द्वारा वाच्य क्यो न माना जाए? यदि एक शब्द द्वारा भिन्न-भिन्न समस्त पदार्थों की वाच्यता स्वीकार करली जाए, तो विभिन्न पदार्थों के लिए विभिन्न शब्दो का प्रयोग व्यर्थ सिद्ध होगा । अत वाचक शब्द की अपेक्षा से भी अभेद वृत्ति नही, भेद वृत्ति ही प्रमाणित होती है। प्रत्येक पदार्थ गुण और पर्याय स्वरूप है । गुण और पर्यायो मे परस्पर भेदाभेद सम्बन्ध है । जब प्रमाण-सप्तभगी से पदार्थ का अधिगम किया जाता है, तब गुण-पर्यायो मे कालादि के द्वारा अभेद वृत्ति या अभेद का उपचार होता है और अस्ति या नास्ति आदि किसी एक शब्द के द्वारा ही अनन्त गुण पर्यायो के पिण्ड स्वरूप अखण्ड पदार्थ का, अर्थात् अनन्त धर्मों का युगपत परिबोध होता है । और जब नय-सप्तमगी से पदार्थ का अधिगम किया जाता है, तब गुण और पर्यायो मे कालादि के द्वारा भेद वृत्ति १३१
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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