SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-दर्शन मे सप्तभगीवाद समाधान है कि वस्तु-तत्त्व के प्रतिपादन की दो शैलियाँ है-अभेद और भेद । अभेद-शैली भिन्नता मे भी अभिन्नता का पथ पकडती है और भेद-शैली अभिन्नता मे भिन्नता का पथ प्रशस्त करती है । अस्तु, अभेद प्राधान्य वृत्ति या अभेदोपचार विवक्षित वस्तु के अनन्त धर्मो को काल, आत्म, रूप, अर्थ, सम्बन्ध उपकार, गुणिदेश, ससर्ग और शब्द की अपेक्षा से एक साथ अखण्ड एक वस्तु के रूप मे उपस्थित करता है। इस प्रकार एक और अखण्ड वस्तु के रूप मे अनन्त धर्मों को एक साथ प्रतिपादित करने वाले सकलादेश से वस्तु के समस्त धर्मों का एक साथ समूहात्मक परिज्ञान हो जाता है। अभेदावच्छेक कालादि का निरूपण जीव आदि पदार्थ कथचित् अस्तिरूप है, उक्त एक अस्तित्व-कथन मे अभेदावच्छेदक काल आदि की घटन पद्धति इस प्रकार है १ वस्तु मे जो अस्तित्व धर्म का समय है, काल है, वही शेष अनन्त धर्मों का भी है, क्योकि उस समय वस्तु मे अन्य भी अनन्त धर्म उपलब्ध होते है । अतः एक अस्तित्व के साथ काल की अपेक्षा अस्तित्व आदि सब धर्म एक है। २ जिस प्रकार वस्तु का अस्तित्व स्वभाव है, उसी प्रकार अन्य धर्म भी वस्तु के आत्मीय-रूप है, स्वभाव है । अत आत्म-रूप की अपेक्षा से अस्तित्व आदि सब धर्म अभिन्न है। ३ जिस प्रकार वस्तु अस्तित्व का अर्थ है, आधार है, वैसे ही अन्य धर्मों का भी वह आधार है। अत अर्थ अर्थात् आधार की अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न है। __ ४ जिस प्रकार पृथक्-पृथक् न होने वाले कथचित् अविप्वग्भावरूप तादात्म्य सम्बन्ध से अस्तित्व धर्म वस्तु मे रहता है, उसी प्रकार अन्य धर्म भी रहते है। अत. सम्बन्ध की अपेक्षा से भी अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न है। ५ अस्तित्व धर्म के द्वारा जो स्वानुरक्तत्व करण रूप उपकार वस्तु का होता है, वही उपकार अन्य धर्मों के द्वारा भी होता है। अत उपकार की अपेक्षा से भी अस्तित्व आदि धर्मों मे अभेद है। ६ जो क्षेत्र द्रव्य मे अस्तित्व का है, वही क्षेत्र अन्य धर्मों का भी है। अत. अस्तित्व आदि धर्मों में अभेद है । इमी को गुणि-देश' कहते है । अर्थ पद से लम्बी-चौडी अखण्ड वस्तु पूर्णरूप से ग्रहण की जाती है और गुणि-देश से अखण्ड वस्तु के बुद्धि-परिकल्पित देशाश ग्रहण किए जाते हैं । १२६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy