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________________ गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ नय कहे जाते है । वस्तु के समस्त धर्मों को ग्रहण करने वाला सकलादेश और किसी एक धर्म को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाला' तथा शेष वर्मों के प्रति उदासीन अर्थात् तटस्थ रहने वाला विकलादेश कहा जाता है। आचार्य सिद्धसेन के शब्दो मे स्याद्वाद सम्पूर्णार्थ-विनिश्चायी है । अत वह अनेकान्तात्मक पूर्ण अर्थ को ग्रहण करता है। जैसे "जीव" कहने से जीव के ज्ञान आदि असाधारण धर्म, सत्त्व आदि साधारण धर्म और अमूर्तत्व आदि साधारणासाधारण आदि सभी गुणो का ग्रहण होता है । अत यह प्रमाण-वाक्य है-स्याद्वाद वचन है । नय-वाक्य वस्तु के किसी एक धर्म का मुख्य रूप से कथन करता है। जैसे "जो जीव" कहने से जीव के अनन्त गुणो मे से केवल एक ज्ञान गुण का ही वोध होता है, शेप धर्म गौण रूप से उदासीनता के कक्ष मे पडे रहते हैं । सकलादेशी वाक्य के समान विकलादेशी वाक्य में भी "स्यात् पद का प्रयोग अनेक आचार्यों ने किया है। क्योकि वह शेप धर्मों के अस्तित्व की गौणरूप मे मूक सूचना करता है। इस आधार से सप्तभगी के दो भेद किए जाते है-प्रमाण-सप्तभगी और नय-सप्तभगी। प्रमाण-सप्तभगी आगम और युक्ति से यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि वस्तु मे अनन्त धर्म हैं । अत किसी भी एक वस्तु का पूर्णरूप से कथन करने के लिए तत् तद् अनन्त धर्म-बोधक अनन्त शब्दो का प्रयोग करना चाहिए । परन्तु न यह सम्भव है, और न व्यवहार्य ही। अनन्त धर्मों के लिए पृथक्-पृथक् अनन्त शब्दो के प्रयोग मे अनन्त काल बीत सकता है, और तब तक एक पदार्थ का भी समय वोध न हो सकेगा। अस्तु, कुछ भी हो, हमे किसी एक शब्द से ही सम्पूर्ण अर्थ के वोध का मार्ग अपनाना पडता है । वह एक शब्द ध्वनि-मुखेन भले ही वाहर मे एक धर्म का ही कथन करता-सा लगता है, परन्तु अभेद प्राधान्य वृत्ति अथवा अभेदोपचार से वह अन्य धर्मों का भी प्रतिपादन कर देता है। उक्त अभेद प्राधान्य वृत्ति या अभेदोपचार से एक शब्द के द्वारा एक धर्म का कथन होते हुए भी अखण्ड रूप से अन्य समस्त धर्मों का भी युगपत् कथन हो जाता है । अत इसको 'प्रमाण-सप्त' भगी कहते है। प्रश्न है, कि यह अभेद वृत्ति अथवा अभेदोपचार क्या चीज है ? जवकि वस्तु के अनन्त धर्म परस्पर भिन्न हैं, उन सब की स्वरूप सत्ता पृथक् है, तब उनमे अभेद कैसे माना जा सकता है ? सिवान्त प्रतिपादन के लिए केवल कथन मात्र अपेक्षित नही होता, उसके लिए कोई ठोस आधार चाहिए। - -- -- १ अनेक-धर्मात्मक-वस्तुविषयक-बोधजनकस्य सकलादेशत्वम् । एकधर्मात्मक-वस्तु-विषयक-बोषजनकत्व विकलादेशत्वम् । -सप्तभगी तरगिणी, पृ० १६ २ नयनामेकनिष्ठानां, प्रवृत्ते श्रुतवमनि, सम्पूर्णार्थविनिश्चायि, स्याद्वाद श्रुतमुच्यते । -क्यायावतार सूत्र, श्लोक, ३० १२८
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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