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________________ जैन-दर्शन मे सप्तभगीवाद भगी जैसे गम्भीर तत्त्व को समझने का बहुमत-सम्मत राज मार्ग यही है कि सर्वत्र "स्यात्"' शब्द का प्रयोग किया जाए। अन्य दर्शनो मे भंग-योजना का रहस्य भगो के सम्बन्ध मे स्पष्टता की जा चुकी है, फिर भी अधिक स्पष्टीकरण के लिए इतना समझना आवश्यक है, कि सप्तभगी मे मूल भग तीन ही हैं-अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य । शेष चार भग सयोग जन्य है। तीन द्विसयोगी और एक विसयोगी है । अद्वैत वेदान्त, बौद्ध और वैशेषिक दर्शन की दृष्टि से मूल तीन भगो को योजना इस प्रकार की जाती है । __अद्वैत वेदान्त मे एक मात्र तत्त्व ब्रह्म ही है। किन्तु वह "अस्ति" होकर भी अवक्तव्य है । उसकी सत्ता होने पर भी वाणी से उसकी अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। अत वेदान्त मे ब्रह्म "अस्ति" होकर भी 'अवक्तव्य' है। बौद्ध दर्शन मे अन्यापोह "नास्ति' होकर भी अवक्तव्य है। क्योकि वाणी के द्वारा अन्य का सर्वथा अपोह करने पर किसी भी विधि रूप वस्तु का बोध नहीं हो सकता । अत बौद्ध का अन्यापोह "नास्ति" होकर मी अवक्तव्य रहता है । वैशेषिक दर्शन में सामान्य और विशेष दोनो स्वतन्त्र है । सामान्य-विशेष अस्ति-नास्ति' होकर भी अवक्तव्य है । क्योकि वे दोनो किसी एक शब्द के वाच्य नही हो सकते है और न सर्वथा भिन्न सामान्य-विशेष मे कोई अर्थक्रिया ही हो सकती है । इस दृष्टि से जैन सम्मत मूल भगो की स्थिति अन्य दर्शनो मे भी किसी न किसी रूप में स्वीकृत है।' सकलादेश और विकलादेश यह बताया जा चुका है कि प्रमाण वाक्य को सकलादेश और नय-वाक्य को विकलादेश कहते है। फिर भी उक्त दोनो भेदो को और अधिक स्पप्टता से समझने की आवश्यकता है। पाच ज्ञानो मे श्रुत जान भी एक भेद है । उस श्रुतज्ञान के दो उपयोग है-स्यावाद और नय । स्याद्वाद सकलादेश है और नय विकलादेश । ये सातो ही भग जब सकलादेशी होते है, तब प्रमाण और जब विकलादेशी होते है, तब १ स्यादित्यव्ययम् अनेकान्त घोतकम्-स्याद्वाद मजरी का०५ आचार्य हेमचन्द्र स्यात् को अनेकान्त बोधक ही मानते हैं। अतः उन्हे स्यात् प्रमाण मे अभीष्ट है, नय मे नहीं। -सदेव सत् स्यात्सदिति विधार्थ · अयोग० का० २८। जबकि भट्टाकलंक लघीय स्त्रय ६२ मे स्यात् को सम्यग् अनेकात और सम्यग् एकात उभय का वाचक मानते है, अत उन्हे प्रमाण और नय-दोनो मे ही स्यात् अभीष्ट है। २ विशेष व्यावृत्तिहेतुक होने से नास्ति है ३५० महेन्द्रकुमार संपादित-जन दर्शन, पृ० ५४३ • उपयोगी श्रुतस्य द्वौ, स्यादवाद नय-सजितौ । स्याद्वाद. सकलादेशो नयो विकलसंकथा । --लघीयस्त्रय, श्लो० ६२ १२७
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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