________________
गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ
क्षेत्र, काल और भाव-इसको चतुष्टय कहते हैं। घट स्व-द्रव्य रूप मे पुद्गल है, चैतन्य आदि पर द्रव्य रूप मे नही है । स्वक्षेत्र रूप मे कपालादि स्वावयवो मे है, तन्त्वादि पर अवयवो मे नही है। स्वकाल रूप मे अपनी वर्तमान पर्यायो मे है, पर पदार्थों की पर्यायो मे नही है। स्वभाव रूप मे स्वय के रक्तादि गुणो मे है, पर पदार्थों के गुणो मे नही है। अत प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से सत् है,
और पर द्रव्य, पर क्षेत्र पर काल और पर-भाव से असत् है। इस अपेक्षा से एक ही वस्तु के सत् और असत् होने में किसी प्रकार की बाधा अथवा किसी प्रकार का विरोध नहीं है। विश्व का प्रत्येक पदार्थ स्वचतुष्टय की अपेक्षा से है, और पर चतुष्टय की अपेक्षा से बह नही भी है।
स्यात् शब्द की योजना
सप्तभगी के प्रत्येक भग मे स्व-धर्म मुख्य होता है, और शेप धर्म गौण अथवा अप्रधान होते हैं । इसी गौण-मुख्य विवक्षा की सूचना "स्यात्" शब्द करता है । "स्यात्" जहाँ विवक्षित धर्म की मुख्यत्वेन प्रतीति कराता है, वहाँ अविवक्षित धर्म का भी सर्वथा अपलापन न करके उसका गौणत्वेन उपस्थापन करता है । वक्ता और श्रोता यदि शब्द-शक्ति और वस्तुस्वरूप की विवेचना मे कुशल हैं, तो "स्यात्" शब्द के प्रयोग की आवश्यकता नहीं रहती। विना उसके प्रयोग के भी अनेकान्त का प्रकाशन हो जाता है। "अहम् अस्मि" मैं हूँ। यह एक वाक्य प्रयोग है। इसमे दो पद है-एक "महम्" और दूसरा "अस्मि" । दोनो मे से एक का प्रयोग होने पर दूसरे का अर्थ स्वत ही गम्यमान हो जाता है, फिर भी स्पष्टता के लिए दोनो पदो का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार 'पार्थों धनुर्धर' इत्यादि वाक्यो में 'एव' कार का प्रयोग न होने पर भी तन्निमित्तक 'अर्जुन' ही धनुर्घर है-यहाँ अर्थवोध होता है, और कुछ नही। प्रकृत मे भी यही सिद्धान्त लाग्न पडता है। स्यात्-शून्य केवल "अस्ति घट" कहने पर भी यही अर्थ निकलता है, कि "कथाचित् घट है, किसी अपेक्षा से घट है।" फिर भी भूल-चूक को साफ करने के लिए किंवा वक्ता के भावो को समझने मे भ्रान्ति न हो जाए, इसलिए 'स्यात्" शब्द का प्रयोग अभीप्ट है। क्योकि ससार मे विद्वानो की अपेक्षा साधारणजनो की मख्या ही अधिक है । अत सप्त
' स्याद्वाद मजरी (का० २३) मे घट का स्वचतुष्टय क्रमश. पार्थिवत्व, पाटलिपुत्रकत्व, शैशिरत्व
और श्यामस्वरूप मे छपा है, जो व्यवहार दृष्टि प्रधान है। २ अप्रयुक्तोऽपि सवत्र, स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते; विधौ निषेधेऽप्यन्यत्र, कुशलश्चेत्प्रयोजक ॥६३॥
-लघीयस्त्रय, प्रवचन प्रवेश 3 सोऽप्रयुक्तोऽपि तन्न., सर्वत्रार्यात्प्रतीयते; तथैवकारो योगादिव्यवच्छेद प्रयोजनः॥
-तत्त्वार्य श्लोक वार्तिक १, ६, ५६
१२६