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जैन-दर्शन मे सप्तभगीवाद
वह यह कि घट के युगपद् अस्तित्व नास्तित्व का वाचक कोई शब्द नही है, अत विधि-निषेध का युगपत्त्व अवक्तत्व है । परन्तु वह अवक्तव्यत्त्व सर्वथा सर्वतो भावेन नही है । यदि सर्वथा सर्वतो भावेन अवक्तव्यत्व माना जाए, तो एकान्त अवक्तव्यत्व का दोप उपस्थित होता है, जो जैन दर्शन मे मिथ्या होने से मान्य नहीं है । अतः स्याद् अवक्तव्य सूचित करता है कि यद्यपि विधि निषेध का युगपत्त्व विधि या निषेध शब्द से वक्तव्य नहीं है, अवक्तव्य है, परन्तु वह अवक्तव्य सर्वथा अवक्तव्य नहीं है, 'अवक्तव्य' शब्द के द्वारा तो वह युगपत्त वक्तत्व ही है। पञ्चम भग : स्याद् अस्ति प्रवक्तव्य घट
यहाँ पर प्रथम समय मे विधि और द्वितीय समय मे युगपत् विधि निषेध की विवक्षा करने से घट को स्याद् अस्ति अवक्तव्य कहा गया है । इसमे प्रथमाश अस्ति, स्वरूपेण घट की सत्ता का कथन करता है और द्वितीय अवक्तव्य अश युगपत् विधि-निषेध का प्रतिपादन करता है । पचम भग का अर्थ है-घट है, और अवक्तव्य भी है।
षष्ठ भंग : स्यात् नास्ति प्रवक्तव्य घट
यहाँ पर प्रथम समय मे निषेध और द्वितीय समय मे एक साथ युगपद् विधि-निषेध की विवक्षा होने से घट नहीं है, और वह अवक्तव्य है-यह कथन किया गया है । सप्तम भंग : स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य घट
यहाँ पर क्रम से प्रथम समय मे विधि और द्वितीय समय में निषेध तथा तृतीय समय एक साथ मे युगपद् विधि-निषेध को अपेक्षा से-"घट है, घट नही है, घट अवक्तव्य है।" यह कहा गया है। चतुष्टय की व्याख्या
प्रत्येक वस्तु का परिज्ञान विधि-मुखेन और निपेघ-मुखेन होता है। स्वात्मा से विधि है और परात्मा से निपेध है, ' क्योकि स्वचतुष्टयेन जो वस्तु सत् है, वही वस्तु पर-चतुष्टयेन असत् है।' द्रव्य,
जिसमे घट बुद्धि और घट शब्द की प्रवृत्ति (व्यवहार) है, वह घट का स्वात्मा है, और जिसमे उक्त . दोनो की प्रवृत्ति नहीं है, वह घट का पटादि परात्मा है। "घट बुद्धयभिधान प्रवृत्तिलिङ्गः स्वास्मा, यत्र तयोरप्रवृत्ति स परात्मा पटादि।"
-तत्वार्थ राजवार्तिक १, ६,५ २ अथ तव्यथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तच्चतुष्क च; द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेन तथाऽथवापि भावेन ।
-पचाध्यायी १, २६३
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