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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-प्रन्थ
स्वरूप की सत्ता भी मानी जाए', तो उनमे स्व-पर विभाग कैसे घटित होगा स्व-पर विभाग के अभाव • मे सकर दोष उपस्थित होता है, जो सब गुड-गोबर एक कर देता है । अत प्रथम भग का यह अर्थ होता है कि घट की सत्ता किसी एक अपेक्षा से है, सब अपेक्षाओ से नही । और वह एक अपेक्षा है, स्व की, स्वचतुष्टय की। द्वितीय भंग : स्याद् नास्ति घट
यहाँ घट की सत्ता का निषेध पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा से किया गया है । प्रत्येक पदार्थ विधि रूप होता है, वैसे निषेध रूप भी। अस्तु, घट मे घट के अस्तित्व की विधि के साथ घट के अस्तित्व का निषेध-नास्तित्व भी रहा हुआ है। परन्तु वह नास्तित्व अर्थात् सत्ता का निषेध, स्वाभिन्न अनन्त पर की अपेक्षा से है । यदि पर की अपेक्षा के समान स्व की अपेक्षा से भी अस्तित्व का निषेध माना जाए, तो घट नि स्वरूप हो जाए। और यदि नि स्वरूपता स्वीकार करे, तो स्पष्ट ही सर्वशून्यता का दोप उपस्थित हो जाता है । अत द्वितीय भग सूचित करता है कि घट कथचित् नही है । घट भिन्न पटादि की, पर-चतुष्टय की अपेक्षा से नहीं है। स्व-रूपेण ही सदा स्व है, पर-रूपेण नही । तृतीय भंग : स्याद् अस्ति नास्ति घट
जहाँ प्रथम समय मे विधि की और द्वितीय समय मे निषेध की क्रमश विवक्षा की जाती है, वहाँ तीसरा भग होता है । इसमे स्व की अपेक्षा सत्ता का और पर की अपेक्षा असत्ता का एक साथ, किन्तु क्रमश कथन किया गया है। प्रथम और द्वितीय भंग विधि एव निषेध का स्वतन्त्र रूप से पृथक्-पृथक् प्रतिपादन करते है, जब कि तृतीय भग एक साथ, किन्तु क्रमश विधि-निषेध का उल्लेख करता है। चतुर्थ भग : स्यात् प्रवक्तव्य घट
जब घटास्तित्व के विधि और निषेध दोनो को युगपत् अर्थात् एक समय मे विवक्षा होती है, तव दोनो को एककालावच्छेदेन एक साथ अक्रमश बताने वाला कोई शब्द न होने से घट को अवक्तव्य कहा जाता है । शब्द की शक्ति सीमित है । जब हम वस्तुगत किसी भी धर्म की विधि का उल्लेख करते हैं, तो उसका निषेध रह जाता है, और जब निषेध कहते है तो विधि रह जाती है। यदि विधि-निषेध का पृथक्-पृथक् या क्रमश एक साथ प्रतिपादन करना हो तो प्रथम के तीन भगो मे यथाक्रम 'अस्ति', 'नास्ति' और अस्ति-नास्ति शब्दो के द्वारा काम चल सकता है, परन्तु विधि-निषेध की युगपद् वक्तव्यता में कठिनाई है, जिसे अवक्तव्य शब्द के द्वारा हल किया गया है। स्याद् अवक्तव्य भग बताता है कि घटवक्तव्यता क्रम में ही होती है, युगपद् मे नही । स्याद् अवक्तव्य भग एक और ध्वनि भी देता है।
'स्वल्पोपादानवत् पररूपोपादाने सर्वथा स्वपर-विभागाभावप्रसंगात् । स चायुक्तः ।
-तत्त्वार्य श्लोक वार्तिक १, ६, ५२ पररूमापोहनवत् स्वरूपापोहने तु निरुपास्यत्व-प्रसगात्। -तत्वार्य श्लोक वार्तिक १, ६, १२