SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-दर्शन मे सप्तभगीवाद ५-स्याद् अस्ति अवक्तव्य ६–स्याद् नास्ति अवक्तव्य ७ स्याद् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य सप्तभगी मे वस्तुत मूल भग तीन ही है-अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य । इसमे तीन द्विसयोगी और एक त्रिसयोगी-इस प्रकार चार भग मिलाने से सात भग होते है। द्विसयोगी भग ये है-अस्तिनास्ति, अस्ति अवक्तव्य और नास्ति अवक्तव्य । मूल भग तीन होने पर भी फलितार्थ रूप से सात भगो का उल्लेख भी आगमो मे उपलब्ध होता है । भगवती सूत्र मे जहाँ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का वर्णन आया है, वहा स्पष्ट रूप से सात भगो का प्रयोग किया गया है।' आचार्य कुन्दकुन्द ने सात भगो का नाम गिना कर सप्त भग का प्रयोग किया है ।" भगवती सूत्र मे अवक्तव्य को तीसरा भग कहा है। जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण भी अवक्तव्य को तीसरा भग मानते है । कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकाय मे इसको चौथा माना है, पर अपने प्रवचन सार मे इसको तीसरा माना है। उत्तरकालीन आचार्यों की कृतियो मे दोनो क्रमो का उल्लेख मिलता है। प्रथम भंग . स्याद् अस्ति घट उदाहरण के लिए घटगत सत्ता धर्म के सम्बन्ध मे सप्त भगी घटाई जा रही है। घट के अनन्त धर्मों में एक धर्म सत्ता है, अस्तित्व है । प्रश्न है कि वह अस्तित्व किस अपेक्षा से है ? घट है, पर वह क्यो है और कैसे है ? इसी का उत्तर प्रथम भग देता है। घट का अस्तित्व स्यात् है, कथ-चित् है, स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से है । जब हम कहते है कि यहा है, तब हमारा अभिप्राय यही होता है, कि घडा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की दृष्टि से है । यहाँ घट के अस्तित्व की विवि है, अत यह विधि भग है । परन्तु यह अस्तित्व की विधि स्व की अपेक्षा है पर की अपेक्षा से नही है। विश्व की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व स्वरूप से ही होता है, पर रूप से नही । “सर्व मस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च ।" यदि स्वय से भिन्न अन्य समग्र पर स्वरूपो से भी घट का अस्तित्व हो, तो घट, फिर एक घट ही क्यो रहे, विश्व रूप क्यो न बन जाए? और यदि विश्व रूप बन जाए, तो फिर मात्र अपनी जलाहरणादि क्रियाएं ही घट मे क्यो हो, अन्य पदादि की प्रच्छादनादि क्रियाएँ क्यो न हो ? किन्तु कभी ऐसा होता नही है । एक बात और है । यदि वस्तुओ मे अपने स्वरूप के समान पर १ भगवती सूत्र, श० १२, ३०१०, प्र० १९-२० २ पचास्तिकाय, गाथा १४ 'भगवती सूत्र, श० १२, ३०१०, प्र० १९-२० ४ विशेषावश्यक भाष्य, गा० २.-३२ ५ प्रवचनसार याधिकार, गा० ११५ १२३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy