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गुरदेव श्री रत्न मुनि स्मृनि-प्रन्य
सप्तभंगो और अनेकान्त
वस्तु का अनकान्तत्व और तत्प्रतिपादक भापा की निर्दोप पद्धति स्याद्वाद, मूलत सप्तभगी में सन्निहित हैं । अनेकान्त दृष्टि का फलितार्थ है, कि प्रत्येक वस्तु मे सामान्य रूप से और विशेष रूप से, भिन्नता की दृष्टि से और अभिन्नता की दृष्टि से, नित्यत्व की अपेक्षा मे और अनित्यत्व की अपेक्षा से तथा सदप से और असदप अनन्त धर्म होने हैं । मक्षेप मे-"प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है" यह परिवोव अनेकान्त दृष्टि का प्रयोजन है। अनेकान्त स्वार्थाधिगम है प्रमाणात्मक श्रुतज्ञान है । परन्तु सप्नभनी की उपयोगिता इम वात में है, कि वह वस्तु-गत अनेक अथवा अनन्त धर्मों की निर्दोप भापा में अपेक्षा वताए, योग्य अभिव्यक्ति कराए । उक्त चर्चा का साराण यह है कि अनेकान्त अनन्तधात्मक वस्तु स्वरूप की एक दृष्टि है, और स्याद्वाद अर्थात् सप्तमगी उस मूल जानात्मक दृष्टि को अभिव्यक्त करने की अपेक्षा-मूचिका एक वचन पद्धनि है। अनेकान्त एक लक्ष्य है, एक वाच्य है और सप्तभगी स्यावाद एक साधन है, एक वाचक है, उसे समझने का एक प्रकार है। अनेकान्त का क्षेत्र व्यापक है, जब कि स्याद्वाद का प्रतिपाद्य विपय व्याप्य है, दोनों में व्याप्य-व्यापक-भाव सम्बन्ध है । अनन्तानन्त अनेकान्तो मे शब्दात्मक होने में सीमित स्याद्वादो की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अत स्याद्वाद अनेकान्त का व्याप्य है, व्यापक नहीं।
भंग कथन-पद्धति
गन्द-शास्त्र के अनुसार प्रत्येक शब्द के मुख्यरुप मे दो वाच्य होते हैं-विधि और निपेध । प्रत्येक विधि के माय निषेध है और प्रत्येक निपेव के साथ विधि है। एकान्त रूप से न कोई विधि है,
और न कोई निषेध । इकरार के माथ इन्कार और इन्कार के साय इकरार मर्वत्र लगा हुआ है । उक्त विवि और निषेध के मव मिलाकर मप्तमग होते हैं। मप्त भगो के कथन की पद्धति यह है -
१ स्याद् अस्ति २ स्याद नास्ति ३-स्याद् अस्ति-नास्ति ४-स्गद् अवक्तव्य
' अभिलाप्य भाव, अनमिलाप्य भावों के अनन्तवें भाग हैं-'पण्णवणिज्जा भावा, अणन्तभागो दु
अणभिलप्पाण"-गोमट्टसार । अनन्त का मनतवां भाग भी अनन्त ही होता है, अत. वचन भी अनन्त हैं । तत्त्वार्य श्लोक वार्तिक १, ६, ५२ के विवरण मे कहा है -"एकत्र वस्तुनि अनन्तानां धर्माणा मभिलापयोग्यनामुपगमादनन्ता एव वचनमार्गाः स्याद्वादिना भवेयुः।" यह ठीक है कि वचन अनन्त है, फलत. स्याद्बाद भी अनन्त है, परन्तु वह अनेकान्त धर्मों का अनन्तवा भाग होने के कारण सीमित है, फलतः व्याप्य है।
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