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________________ जैन-दर्शन मे सप्तभगीवाद वस्तु के यथार्थ परिबोध के लिए जैन दर्शन ने दो उपाय स्वीकार किए है-प्रमाण' और नय । ससार की किसी भी वस्तु का अधिगम (बोध) करना हो, तो वह बिना प्रमाण और नय के नही किया जा सकता। अधिगम के दो भेद होते है-स्वार्थ और परार्थ । स्वार्थ ज्ञानात्मक होता है, परार्थ शब्दात्मक । भग का प्रयोग परार्थ (दूसरे को परिबोध कराने के लिए किए जाने वाले शब्दात्मक अधिगम) मे किया जाता है, स्वार्थ (अपने आप के लिए होने वाले ज्ञानात्मक अधिगम) मे नही । उक्त वचन-प्रयोग रूप शब्दात्मक परार्थ अधिगम के भी दो भेद किए जाते है-प्रमाण-वाक्य, और नय-वाश्य । उक्त आधार पर ही सप्तभगी के दो भेद किए है—प्रमाण-सप्तभगी, और नय-सप्त भगी। प्रमाण-वाक्य को सकलादेश और नय-वाक्य को विकलादेश भी कहा गया है। वस्तुगत अनेक धर्मों के बोधक वचन को सकलादेश और उसके किसी एक धर्म के बोधक-वचन को विकलादेश कहते है। जैन दर्शन मे वस्तु को अनन्त धर्मात्मक माना गया है । वस्तु की परिभाषा इस प्रकार की है जिसमे गुण और पर्याय रहते है, वह वस्तु है।" तत्त्व, पदार्थ और द्रव्य–ये वस्तु के पर्यायवाची शब्द हैं। सप्तभगी की परिभाषा करते हुए कहा गया है, कि-"प्रश्न उठने पर एक वस्तु मे अविरोव-भाव से जो एक धर्म-विषयक विधि और निषेध की कल्पना की जाती है, उसे सप्तभगी कहा जाता है । ५ भग सात ही क्यो है ? क्योकि वस्तु का एक धर्म-सम्बन्धी प्रश्न सात ही प्रकार से किया जा सकता है । प्रश्न सात ही प्रकार का क्यो होता है ? क्योकि जिज्ञासा सात ही प्रकार से होती है । जिज्ञासा सात ही प्रकार से क्यो होती है ? क्योकि सशय सात ही प्रकार से होता है । अत किसी भी एक वस्तु के किसी भी एक धर्म के विषय मे सात ही भग होने से इसे सप्तभगी कहा गया है। गणित शास्त्र के नियमानुसार भी तीन मूल वचनो के सयोगी एव असयोगी अपुनरुक्त भग सात ही हो सकते है, कम और अधिक नहीं। तीन असयोगी मूल भंग, तीन द्विसयोगी भग और एक त्रिसयोगी भग। भग का अर्थ है-विकल्प, प्रकार और भेद। ' प्रमाणनयैरषिगमः-तस्वार्थाधिगम सूत्र १, ६ । २ अधिगमो द्विविधः स्वार्थः परार्थश्च, स्वार्थो ज्ञानात्मकः परार्थः शब्दात्मकः। सच प्रमाणात्मको नयात्मकश्च "इयमेव प्रमाण-सप्तभगी च कथ्यते । सप्तमङ्गीतरंगिणी, पृ०१ अधिगमहेतु द्विविधः'"-तत्त्वार्थ राज वार्तिक १, ६, ४ । अनन्त धर्मात्मक मेव तत्त्वम्-अन्ययोग व्यवच्छेविका, का० २२ " वसन्ति गुण-पर्याया अस्मिन्निति वस्तु-धर्माधर्माऽऽकाश-पुद्गल-काल नोवलक्षण प्रव्यषट्कम् । -स्याद्वाव मंजरी, कारिका, २३ टीका ५ प्रश्नवशावेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधि-प्रतिष विकल्पना सप्तभङ्गी । -तत्त्वार्थ राजवार्तिक १, ६, ५? १२१ ,
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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