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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ पश्चात् ज्ञान होता है, तथा इसके विपरीत केवली को प्रथम ज्ञान और पश्चात् दर्शन होता है, तो निश्चित रूप से छद्मस्थो के प्रसग मे प्रथम 'पासई और पश्चात् 'जाणई' का पाठ आना चाहिए था। परन्तु इस प्रकार का पाठ कही पर भी नहीं है, प्रत्युत केवली के समान ही प्रथम 'जाणई' का पाठ है । इस स्थिति मे यह कैसे माना जाए, कि "जाणइ पास३" पाठ जैन दर्शन-सम्मत ज्ञानदर्शन के पारिभाषिक विशेष एव सामान्य बोधरूप अर्थ को सूचित करते है, अथवा तद्विपयक क्रम या व्युत्क्रम-सम्बन्धी कोई विशिष्ट सूचना देते है। प्रस्तुत प्रसग मे एक बात और भी विचारणीय है। वह यह कि आनन्द श्रावक सम्यग्दृष्टि है, भगवान् महावीर का श्रद्धालु विचारक उपासक है । यदि वस्तुत "जाणइ' पाठ विशेष बोध स्वरूप ज्ञान का और "पासइ" पाठ सामान्यबोध स्वरूप दर्शन का सूचक है, साथ ही क्रम-व्युत्क्रम के प्रश्न पर भी निर्णायक प्रकाश डालता है, तो आनन्द अवधिज्ञानी होते हुए स्वय कैसे "जाणामि पासामि" कहता है । आनन्द जैसे सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानी को तो ज्ञानदर्शन की वास्तविक परिभापा तथा उसके क्रम व्युत्क्रम का ख्याल अवश्य होना चाहिए । और यदि सचमुच ही उन्हे कुछ ख्याल होता, तो वे अपने लिए छद्मस्थ होने के कारण "पासामि जाणामि" ही बोलते, "जाणामि पासामि" नही । उक्त चर्चा के प्रारम्भ मे मैंने सकेत दिया था कि आगमो मे कुछ प्रसग ऐसे भी है, जहाँ केवल "पासइ" पाठ ही आता है। भगवती सूत्र मे गणधर गौतम द्वारा प्रात कालीन बालसूर्य को देखने का एक प्रसग वर्णित है "तेण कालेण तेण समएण भगव गोयमे अचिरुगय बालसूरिय जासुमणाकुसुमपुंजप्पगास लोहितग पासइ, पासिता जायसढे-नाव--समुप्पनकोउहल्ले जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ."एव षयासी-किमिद भते सूरिए ?" -भग० शतक १४, उद्देशक : उपर्युक्तपाठ मे भगवान् गौतम तत्काल उदयगत सूर्य को देखते है । सूर्य को देखकर गौतम के मन मैं कुतूहल होता है, कि यह सूर्य क्या है ? अनन्तर गौतम भगवान महावीर के पास जाते है और अपने मन के कुतूहल को व्यक्त करते हुए प्रश्न पूछते है, कि "किमिद भते । रिए ?" अर्थात् भगवन् | यह सूर्य क्या है ? भगवती सूत्र के उपरि उद्धत पाठ में केवल "पासइ" पाठ है, "माणइ" पाठ पहले या पीछे कही है ही नहीं। तो, क्या इसका तात्पर्य यह लिया जाए, कि गौतम स्वामी को बाल सूर्य का केवल अनाकार १ श्री गौतम मुख्य गणधर हैं, द्वावशागी के प्रणेता है, और ज्ञान से युक्त भी है। यह सब वर्णन भगवती सूत्र के प्रारम्भ मे ही किया हुआ है। ऐसी स्थिति में नवोदित बालसूर्य को देखकर उनके मन मे कुतूहल का होना, कैसे सगत माना जाए? यह कुतूहल की बात आगमाभ्यासियो के लिए सविशेष चारणीय है। -लेखक ११६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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