SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरदेव श्री रन मुनि स्मृति-प्रन्य मात्राय जिनमन गणी अमाश्रमग मुप्रसिद्ध अमवादी आचार्य हैं। वे केवल बान और केवल दर्शन में भी क्रमवादिना स्वीकार करते हैं। उनका ही उपरिप्रतिपादित मत है, कि केवल जान और कन्न दान में प्रथम बान होता है, पश्चात् दर्शन। इस सम्बन्ध में उनका तर्क है, कि मूल आगमा में सर्वत्र कवलनानी के लिए "लाणड पामह"इन प्रकार दो क्रियाओ वाला पाठ आता है। प्रथम "वाणड" पाठ है, पश्चात् 'पास' पाठ है । अत आगम पाठ में स्पष्ट है, कि केवली को पहले जानोपयोग होता है, पश्चात् मामान्य बोध । आचार्य मिदन दिगकर और आचार्य मल्लवादी तार्किक के मन, आचार्य जिन भद्रगणी ने भिन्न है। यहाँ चूकि उक्त चर्चा के विस्तार में नहीं जाना है, केवल "नाणड पास" शिया धन्दों की ही अर्थ-मीमामा करनी है, अन हम विगपावश्यक-माप्य के प्रणेता थी जिन मद गगी लमायमण के मन के ही सम्बन्ध में ययावश्यक विचार चर्चा करेंगे। पुरस्थर मागमगढी नमाश्रमण जी अपने पक्ष की इस प्रकार स्थापना करतं हैं, कि "चूकि सूत्री में केवल नानिग के मन में सर्वत्र प्रथम "जाणई" पाठ आता है, और पश्चात् "पामई" । अत केवल जानी को प्रथम नान होता है, पश्चात् दनन-यह अमिक विचार मागम-सम्मत है।" गाजी के उक्त सिद्धान की नमित गन्दी में समालोचना है, कि मागम-सूत्रों में तो मात्र केवल नानियों के प्रमग में ही नहीं, छदमाग के प्राग में भी 'जाणड पाउड" इस प्रकार प्रमिक क्रिया पदों का पाठ आता है। यही नहीं, कुछ स्प्लो पर नो केवल "पासई" का ही प्रयोग मिलता है । जिस श्रुत जान और मन पर्याय नान के साथ दर्शन का लेगमात्र भी सम्बन्ध नहीं है, उनके प्रसंग में भी "जाणड पाचई" का ऋमिक प्रयोग उपलब्ध होता है। बत उक्त "जाण पानई" के ऋमिक प्रयोग में केवल बानी में प्रथम नान और पटना दर्शन का क्रम-विपक मत मिद हो सकता है ? यदि ममग्र भूत्रों में मात्र केवल नानी के विषय मे ही ऐसा क्रमिक प्रयोग मान, तब तो अवश्य गणी श्री जी के क्रम-विषयक विचार का समर्थन हो सकता था। परन्तु यहाँ नो क्वल ज्ञानी और अकंवलनानी अर्थात् छदमन्य सबके लिए "वाणड पामई" का प्रयोग हुआ है और दर्शन के सम्बन्ध से रहित युतनान एवं मन पर्याय नान के लिए भी उन दोनो किया पड़ों का क्रमिक उल्लेन हुआ है । अन जिस "जाणड पासड" पाठ ने गणी जी अपना क्रम-विषयक सिद्धान्त स्थापित कर रहे हैं, वह स्पष्ट ही अतिव्याप्त है । और इस स्थिति में मात्र "जाणड पाड' के पाठ से ही केवल नानी के लिए दर्शन नानविषयक व्युत्क्रम का सिद्धान्त कैस युत्तियुक्त माना जा सकता है? पाठको की जानकारी के लिए "जाणड पासई" के जिन प्रसंगी की चर्चा हमने ऊपर में की है, वे समेप में यहाँ उद्धृत किए जा रहे है " इमे भंते ! बेइविया पचिदिया नीवा, एएसि आणाम वा पाणाम बा, उस्सासंवा निस्मानं वा नाणामो पासामो।" -भगवती मृत्र मतक २ उद्देशक १ ११४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy