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________________ जैन अग सूत्रो के विशेष विचारणीय कुछ शब्द और प्रसग वैसा खाता है, अत वह पाप से कैसे लिप्त हो सकता है। अर्थात् नही हो सकता।" चूर्णिकार ने उक्त गाथा की चूणि मे पूर्व पक्ष के इस प्रतिपाद्य का अतिथि भिक्षु के उदाहरण द्वारा खूब स्पष्टता के साथ उल्लेख किया है । वस्तुतः पूर्व-पक्ष की अपेक्षा से चूर्णिकार का अभिमत ही हमे उचित प्रतीत होता है। आश्चर्य है, कि आचार्य शीलाक का मार्ग चूर्णिकार से सर्वथा भिन्न है । शीलाक अपनी टीका मे मूल पाठ के "अपि" अर्थ सूचक "य" कार को मेधावी के साथ जोडते है और "मेघावी अपि" इस प्रकार विचित्र दूरान्वय का फलितार्थ यह निकालते है, कि मेधावी भिक्षु भी और हिंसा मे सीधी प्रवृत्ति करने वाला उपासक या अन्य कोई साक्षात् घातक भी पाप से लिप्त नहीं होता है। कितना वैचित्र्य है, कि बहु श्रुत वृत्तिकार साक्षात् हिंसा करने वाले घातक को भी निष्पाप बता रहे है। वृत्तिकार का कथन युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। और तो क्या, पहले की २६ और २७ वी गाथा के अर्थ के साथ भी वृत्तिकार के प्रतिपाद्य अर्थ की कोई ठीक सगति नही बैठती । भला, पूर्वपक्षी अपने ही सिद्धान्त के विरुद्ध ऐसा कैसे कह सकता है, कि "साक्षात् हिसा करने वाला भी पाप से लिप्त नही होता है।" प्रसगवश यह भी निवेदन कर दूं, कि चूणि का सूत्रपाठ और वृत्तिकार-सम्मत सूत्रपाठ अनेक स्थानो मे भिन्न-भिन्न परिलक्षित होते है । कितने ही स्थल तो ऐसे है, जहाँ अर्थ-दृष्टि से भी काफी अन्तर है। इतना ही नही, पूर्वपक्षी के मत की अपेक्षा से भी अर्थ-व्यवस्था नही रह पाई है। आश्चर्य तो इस बात का है, कि क्या वृत्तिकार ने चूणि का पाठ सचमुच नहीं देखा था, या उसे समझा नही था' प्रस्तुत विवादास्पद प्रसग मे वृत्तिकार स्वय भी उक्त २८ वी गाथा को पूर्वपक्ष की ही मानते है और यह भी कहते है, कि अब मूल सूत्रकार २६ वी गाथा से पूर्व पक्ष को दूपित करने का उपक्रम करते है । जब वृत्तिकार विवादास्पद गाथा को पूर्वपक्ष की मानते है, तब उन्होने पूर्व पक्ष के सिद्धान्त के विरुद्ध क्यो विचित्र कल्पना की, यह विद्ववर्ग के लिए विचारणीय हो जाता है । आगमो के शुद्ध मूल पाठ और उसके विवेचन मे हमारी चिरकाल से किस प्रकार असावधानी चली आ रही है, उक्त गाथा की वृत्ति उसका एक नमूना है । सक्षेप मे यह सब केवल सूचना की दृष्टि से लिखा गया है, ताकि हम लोग आगम क्षेत्रो मे प्रवहमान असावधानता को दूर करने का यथोचित पुरुपार्थ करें। ११. जाणइ पासइ __ जैन परिभापा मे दर्शन शब्द सामान्य ज्ञान, अस्पष्ट ज्ञान-अनिर्णायक ज्ञान का सूचक माना गया है, और ज्ञान शब्द विशेप ज्ञान, स्पष्ट ज्ञान-निर्णायक ज्ञान का सूचक बतलाया गया है । दर्शन और ज्ञान के सम्बन्ध मे यह भी मान्यता है, कि जीवमात्र को प्रथम दर्शन होता है और उसके पश्चात् ज्ञान । उक्त क्रम सिद्धान्त का अपवाद भी है कि जो मनुष्य केवली होते है, अर्थात् केवलज्ञानी होते है, उनको प्रथम ज्ञान होता है, और बाद मे दर्शन । केवल ज्ञान और केवल दर्शन मे प्रथम केवल ज्ञानोपयोग होता है, पश्चात् केवल दर्शनोपयोग । यह पूर्व क्रम की अपेक्षा व्युत्क्रम है । यह क्रमवाद की चर्चा जैन दर्शन साहित्य मे काफी विस्तार से उपलब्ध है। इस सम्बन्ध मे विभिन्न मत मतान्तर प्रचलित है।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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