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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-अन्य
आचार्य गीलाक कृत टीका के अनुसार पाठ इस प्रकार है - पुत्तं पिया समारम्भ आहारठ्ठ असंजए । भुजमाणो य मेहावी, कम्मणा नोवलिप्पइ ॥२॥
वृत्ति-भावशुद्धया प्रवर्तमानस्य कर्मवन्धो न भवति-इत्यत्रार्थ दृष्टान्तम् आह-पुत्रम् अपत्यम्, पिता जनकः, समारभ्य व्यापाद्य आहारार्थ-कस्पांचित् तथाविषायाम् आपदि तदुद्धरणार्थम् । अरक्तद्विष्ट. असयत. गृहस्थ. तपिशित भुजानोऽपि "च" शब्दस्य अपि शब्दार्थत्वात् इति । तथा मेधावी अपि सयत अपि इत्यर्थ । तदेव गृहस्थो भिक्षुर्वा शुद्धाशय पिशिताशी अपि कर्मणा पापेन न उपलिप्यते-न आश्लिष्यते इति । यथा च अत्र पितु पुत्रं व्यापादयत तत्र अरक्तद्विप्टमनस. कर्मबन्धो न भवति तथा अन्यस्य अपि मरक्तद्विष्टान्त करणस्य प्राणिवघे सति अपि न कर्म-बन्धो भवति इति ॥२८॥
उपर्युक्त शीलाककृत वृत्ति मे दो बाते विचारणीय है । मर्व-प्रथम पाठ भेद की विचारणीयता है । पाठ भेद काफी विशिष्ट है और वह केवल पदच्छेद के हेर-फेर से हो गया है। चूणिकार "पुत्त पिता" इस प्रकार मूल गाथा मे तीन पृथक् पृथक् पद समझते है, जबकि वृत्तिकार "पुत्त पिया" इस प्रकार दो ही पद की उद्भावना करते हैं । गाया के उत्तरार्ध मे चूर्णिकार-भुजमाणो वि" पाठ स्वीकार करते है, जब कि वृत्तिकार को "भुजमाणो य" पाठ अभीप्ट है। फिर भी "य" कार का अर्थ "अपि” ही करते है।
अब जरा गाथा के अर्थ पर विचार कर लीजिए । इस सम्बन्ध में चूर्णिकार का आशय यह है, कि "मास खाने पर भी, चूकि यह तथाकथित मास त्रिकोटि शुद्ध है, अत बौद्ध भिक्ष कर्म-वन्धन मे लिप्त नहीं होता । परन्तु माम तैयार करने वाला घातक व्यक्ति हिंमक होने के कारण कर्म-वन्ध से लिप्त होता है, फिर भले ही वह उपासक हो या अन्य कोई ।"
पूर्व पक्ष की दृष्टि से विचार करने पर चूणिकार का प्रतिपाद्य अर्थ युक्तियुक्त एवं उचित प्रतीत होता है । विवेच्य गाथा से पूर्व २७ वी गाथा में पूर्वपक्षी वौद्ध सम्प्रदायवादी कहता है "एव भावविसोहीए निव्वाणमभिगच्छइ" अर्थात् भाव की विशुद्धि होने से साधक निर्वाण को प्राप्त करता है । प्रस्तुत भावविशुद्धि पक्ष को ही उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करने के लिए अग्रिम २८ वी गाथा की अवतारणा की गई है । अतएव विवादास्पद २८ वी गाथा भी नि सन्देह पूर्व पक्ष की ही है, उत्तर पक्ष की नहीं । पूर्वपक्षी वौद्ध अपने भावविशुद्धि बाले पक्ष को समझाने के लिए कहता है कि-"यदि भाव-विशुद्धि हो, तो यथाप्राप्त त्रिकोटि शुद्ध मास खाने पर भी मेधावी भिक्षु पाप से लिप्त नही होता है। परन्तु वह पूर्व पक्षी हिंसा को स्वप्रतिपादित व्याख्या के अनुसार यह अवश्य कह सकता है और कहता ही है, कि "जो घातक है, या पाचक है, वह भले ही हमारी सम्प्रदाय का अनुयायी हो या और कोई हो, वह चूकि मारने वाला या पकाने वाला है, अत हिंसा-दोप से युक्त होने कारण पाप से अवश्य लिप्त होता है । इसके विपरीत जिसको हिंसा में मूलत प्रवृत्ति नही है, वह भिक्षु तो त्रिकोटि शुद्ध जैसा आहार पाता है,
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