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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
"वैनतेयस्तु वाहनम् ।" -अभिधान चिन्तामणि २, १३५ "गण्डः .. सौपर्णयः वैनतेयः सुपर्णः पक्षिस्वामी काश्यपिः स्वर्णकायः।" -अभिधान चिन्तामणि २, १४५
अमर कोश मे गरुड को 'खगेश्वर' और अभिधान चिन्तामणि मे 'पक्षिस्वामी' कहा है, इस पर से वैनतेय-वेणुदेव की पक्षियो मे श्रेष्ठता भलीभाति प्रमाणित हो जाती है। मूल प्राकृत पद्य मे "वेणुदेव" शब्द के अन्त मे जो "देव" शब्द आता है, उस पर से वेणुदेव पक्षी न होकर कोई विशिष्ट जाति का देव है, यह कल्पना करना सर्वथा निराधार है। जबकि मूल पाठ मे ही पक्षियो मे वेणुदेव गरुड को श्रेष्ठ बताया है , तब वह पक्षी जाति का न होकर कोई देव जाति का देव है, यह कैसे माना जा सकता है?
८. प्रायभाव-वत्तन्वया
भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक ५ मे एक चर्चा आती है, कि यदि सयम और तप का फल अनासव है, आत्मशुद्धि है, तो फिर सयमी एवं तपस्वी साधक देवगति मे क्यो जाते हैं ? देवगति आस्रव निमित्तक है, अनामवनिमित्तक नही । देव-जीवन भोगपरायण जीवन है, अत. वहा अनास्रवत्व एव आत्मशुद्धि सभव नहीं है।
तुगिया नगरी के श्रावक स्थविर कालियपुत्त, स्थविर आणंदरक्खिय तथा स्थविर कासव के साथ उपर्युक्त चर्चा करते हैं। इस सन्दर्भ मे स्थविरो द्वारा कहा गया है कि-१ पूर्व तप और पूर्व संयम से, २ कमिता होने से, ३ सगिता के कारण सयमी और तपस्वी मनुष्य भी देव लोक मे जाते है । पूर्व तप और पूर्व सयम का अर्थ मासक्तियुक्त तप एव सयम है, कमिता का अर्थ रागद्वे पयुक्त स्थिति है और सगिता का अर्थ अभिष्वंग-आसक्ति है। उक्त चर्चा के सम्बन्ध मे श्री गौतम गणधर ने जब भगवान् महावीर से उनका अपना अभिप्राय पूछा, तो भगवान महावीर ने स्वय भी वही उत्तर दिया और स्थविरो की बात का समर्थन किया। अन्त मे उपसहार करते हुए भगवान् ने कहा कि-"सच्चे गं एस अट्टे, नोचेवणं मायभाववत्त व्वयाए।" भगवती सूत्र के उक्त प्राकृत पाठ का भावार्थ इस प्रकार है-हे गौतम | मैं भी उन स्थविरो के कथनानुसार ही मानता हूँ और कहता हूँ यह सव अर्थ-कथन सच है । परन्तु उक्त अर्थ मे आत्म-भाव वक्तव्यता की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए, अर्थात् प्रस्तुत देवलोकगमनरूप अर्थ मे यदि आत्मभाव की विवक्षा है, तो तप एव सयम से साधक स्वर्ग मे नही जाता, प्रत्युत वह वीतराग हो जाता है, फलस्वरूप निर्वाण-परमशान्ति को ही प्राप्त करता है।
उपर्युक्त वक्तव्य का विशेप स्पष्टीकरण यह है, कि सयम और तप के दो उद्देश्य हो सकते हैं। जो लोग जैनपरिभाषा के अनुसार वालकोटि के हैं, विवेक-हीन हैं, उनकी साधना का उद्देश्य पुद्गलभावप्रधान होता है अर्थात् वे लोग अपने तप और सयम से स्वर्गादि का सुख पाना चाहते है अथवा
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