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________________ जैन अग सूत्रो के विशेष विचारणीय कुछ शब्द और प्रसग जाते है, वह कोई भी मनुष्य । परन्तु वह कौन व्यक्ति है, कहाँ का है, और किस युग का है ? यह कुछ पता नही लगता है ? इस स्थिति मे तो वह मात्र एक विशेषण रूप सामान्य अज्ञात मानव ही रह जाता है, जो प्रस्तुत प्रसग मे कथमपि अभिप्रेत नही है। आचार्य शीलाक ने उक्त शब्द की-दान्ता-उपशान्ता. यस्य वाक्येनैव शत्रवः स वान्तवाक्यः चक्रवर्ती"-इस प्रकार व्याख्या की है और उसका चक्रवर्ती अर्थ किया है । कोशो मे चक्रवर्ती के अनेक पर्यायवाची नाम है, परन्तु उनमे "दान्तवाक्य" शब्द का कही भी उल्लेख नहीं है । और न काव्य-साहित्य आदि मे ही ऐसा कोई प्रयोग है । एक बात और है। वह यह कि व्याकरण की दृष्टि से भी आचार्य शीलाक द्वारा निर्दिष्ट दान्तवाक्य का समास असगत है। "दान्तवाक्य" का व्याकरण-सम्मत समास "दान्तं वाक्य यस्य स." इस प्रकार होता है "दान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः" नहीं । टीकाकार ने दान्तवाक्य के समास मे "शत्रु" पद या अर्थ कसे जोडा और लगाया है, यह समझ मे नही आता। निषेधचर्चा लम्बी हो रही है । पाठक जानना चाहेगे, कि यदि "दन्तवक्क" का सस्कृतरूप "दान्तवाक्य" कल्पित है, प्रस्तुत प्रसग मे उपयुक्त नहीं है, तो फिर उसका वास्तविक सस्कृत रूप और अर्थ क्या है ? "दन्तवक्क" का सस्कृत रूप "दन्तवक्त्र" उचित प्रतीत होता है। "दन्तवक्त्र" महाभारत युग का एक सुप्रसिद्ध क्षत्रिय है, जो उत्तम जाति वाला एव उत्तम गुणो वाला माना गया है । दन्तवक्त्र का शब्दार्थ है-जिसके वक्त्र अर्थात् मुख मे जन्म से ही दान्त हो, वह व्यक्ति दन्तवक्त्र कहलाता है। यह केवल यौगिक नही, किन्तु योगरूढ शब्द है, जो वीर क्षत्रिय विशेप का वाचक है । स्तुतिकार भगवान् महावीर की श्रेष्ठता दन्तवक्त्र से बताना चाहता है, अत वह एक सामान्य व्यक्ति नही, किन्तु इतिहासप्रसिद्ध वीर क्षत्रिय होना चाहिए | और वह महाभारतकालीन दन्तवक्त्र है, दान्त वाक्य नही । इतिहास मे दान्तवाक्य नामक कोई प्रसिद्ध व्यक्ति नहीं मिलता है। ___ महाभारत के सभापर्व (अध्याय ३२, श्लोक० ३) मे दन्तववत्र का राजाधिप और महाबली के रूप मे उल्लेख है-"अधिराजाधिप चैव दन्तवक्त्रं महाबलम् ।" उक्त कथन पर से दन्तवक्त्र की क्षत्रियो मे श्रेष्ठता प्रमाणित हो जाती है, फलत भगवान् महावीर की श्रेष्ठता के लिए उसकी सूत्रकृतागोक्त तुलना भी ठीक बैठ जाती है। ७ वेणुदेव वेणुदेव शब्द भी सूत्रकृताग के वीर स्तुति अध्ययन में प्रयुक्त हुआ है । गाथा २१ का उत्तरार्ध है-"पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवे, निष्वाणवादीणिह नायपुत्ते ।" गाथोक्त "वेणुदेव" वैनतेय शब्द का प्राकृत रूपान्तर है । पक्षियो मे गरुड पक्षी सर्वश्रेष्ठ है, वह वैदिक पुराणो मे विष्णु का वाहन माना गया है। अत वह पक्षी होते हुए भी दिव्यकोटि मे गिना जाता है । गरुड के लिए प्रयुक्त होने वाले वैनतेय शब्द के लिए निम्नोक्त कोश प्रमाण स्वरूपेण उपस्थित है "गरुत्मान गरुड तायं वैनतेयः खगेश्वरः।" -अमरकोश १०, ३१ १०५
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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