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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
उपर्युक्त प्रमाणो के आधार पर स्पष्ट है, कि मूत्रकृताग सूत्र का "वीससेण" शब्द श्रीकृष्ण का ही एक नाम है, किसी चक्रवर्ती विशेप का नाम नहीं है और इस पद का सामान्य चक्रवर्ती अर्थ भी नहीं है। संस्कृत रुपान्तर भी वीससेण का विष्वक्सेन होना चाहिए, विश्वसेन नही । शब्दो का अर्थ अपनी इच्छा से मनचाहा नही बनाया जा सकता । यदि इस दिशा मे कल्पना प्रधान पद्धति से यो ही कोई-न-कोई अर्थ घटित किया जाए, तो फिर शब्दार्थ की कोई मर्यादा ही न रहेगी । मात्र शब्दमाम्य की दृष्टि से प्राकृत शब्दो के मन चाहे सस्कृत रूप बनाना और उसे स्वकल्पित किसी भी अर्थ मे यो ही घटित करना शब्द-शास्त्र के प्रति अन्याय है । शब्दो के अर्थ की प्रामाणिकता के लिए रूढि, कवि प्रयोग और कोश आदि सामग्री ही उपयुक्त है और यही परिपाटी सर्व-सम्मत है। ६. दंतवक्क
सूत्रकृताग सूत्र के वीर स्तुति नामक छठवें अध्ययन की २२ वी गाथा के उत्तरार्ध में 'दतवक्क' शब्द आता है-"खत्तीण सेठे बह दंतवक्के ।" "क्षत्रियो मे श्रेष्ठ जैसे दतवक्क है" " आचार्य शीलाक सूरी ने "दतवक्क" शब्द का सस्कृत रूप "दान्तवाक्य" बनाया है, जो कि असगत है। मात्र कल्पना की दौड़ से अर्थ की सगति नहीं बैठा करती । जो शब्द जहां प्रयुक्त हुआ है, वहाँ उसका सदर्भ देखना आवश्यक होता है । सन्दर्भ के अनुसार ही अर्थ की सगति ठीक होती है। सूत्रकृताग का यह सदर्भ इस प्रकार है -
प्रस्तुत अध्ययन मे भगवान् महावीर की यशोगाथा का वर्णन है। भगवान महावीर की उपमानउपमेय के सम्बन्ध से स्तुति की गई है। भगवान उपमेय है और दन्तववक उपमान है । अर्थात् भगवान् महावीर को दन्तवक्क की उपमा दी गई है। सूत्रकार कहते है- "जिस प्रकार क्षत्रियो मे "दतवक्क" श्रेष्ठ है, उसी प्रकार तत्त्वदर्शी ऋपियो मे 'भगवान वर्द्धमान श्रेष्ठ है । उपमान-उपमेय मे उपमेय तो विशेप नाम-स्वरूप व्यक्ति होता ही है, किन्तु उपमान भी, जिसके द्वारा उपमा दी जा रही है, विशेप नामरूप कोई व्यक्ति-विशेप ही होना चाहिए, तभी उपमान-उपमेय भाव की यथार्थ सगति होगी, अन्यथा नहीं । यदि उपमेय व्यक्तिरूप विशेप है और उपमान केवल विशेपण रूप सामान्य ही है, तो उपमान उपमेय का सम्बन्ध यथोचित रूप से घटित नही होगा। "पृथ्वीराज अर्जुन जैसा है"-उक्त वाक्य मे पृथ्वीराज उपमेय है और अर्जुन उपमान है। यदि उक्त वाक्यगत अर्जुन व्यक्ति-विशेष रूप न होकर केवल एक विशेपण ही हो तो उपमान उपमेय की सगति किसी भी तरह घटित नहीं होगी। निष्कर्प यह है, कि व्यक्ति विशेष की ही उपमा दी जा सकती है, विशेपण की नही।
प्रस्तुत प्रसग मे यदि आचार्य शीलाक के द्वारा कल्पित 'दान्तवाक्य' को ही 'दतवक्क' का सस्कृत रूप माना जाए, तो वह एक सामान्य विशेपण ही होगा, किसी व्यक्ति-विशेप का नाम नही। और भगवान् महावीर का उत्कर्ष बताने वाला वह "दान्तवाक्य" केवल एक विशेपण ही हो, कोई विशिष्ट व्यक्ति नही, तो, भला, यह कैसे सगत हो सकता है ? आचार्य शीलाक के अनुसार "दान्त वाक्य" शब्द से केवल इतना ही ध्वनित होता है, कि जिसके वाक्य बोलने मात्र से शत्रु शान्त हो जाते है या दमनयुक्त हो
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