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जैन अग सूत्रो के विशेप विचारणीय कुछ शब्द और प्रसग
जनता मे "मृत" शब्द मृतक-मडा-मुर्दा-मरे हुए के अर्थ मे रूढ है। यद्यपि "मृत" शब्द वनस्पति आदि के मृत शरीर के प्रति भी सूचना करता है, परन्तु मृत (मुर्दा) शब्द सुनते ही जितना शीघ्र मनुष्य एव पशु के मृत देह का बोध होता है, उतना वनस्पति आदि के मृत शरीर का नही । मृत शब्द बनस्पति के मृत शरीर के लिए रूढ भी नही है । अतएव जैन मुनि के लिए प्रयुक्त "मृतादी" शब्द थोडा सा घृणास्पद एव अरुचिकर लगता है।
भगवती सूत्र का यह मृतादी-शब्दगत 'मृत' शब्द वस्तुत किस अर्थ का वाचक है, यह विचारणीय है। क्या यथाश्रुत मृत-मृतक-मुर्दा अर्थ का ही सूचक है, या मृत का कोई और भी अर्थ हो सकता है ? मृत का एक अर्थ याचित अर्थात् भिक्षा भी होता है। अमरकोश, द्वितीयकाण्ड, १६ वा वैश्यवर्ग तथा श्लोक ३ मे लिखा है-" याचित-अयाचितयो : यथासंख्यं मृत-अमृते ।" अर्थात् जो पदार्थ याचित हैयाचना के द्वारा प्राप्त होता है, उसको मृत कहते हैं और जो अयाचित है-याचना के बिना ही मिल जाता है, उसको अमृत कहते हैं।' अमरकोश के सुप्रसिद्ध टीकाकार महेश्वर याचित और मृत शब्दों का स्पष्टीकरण करते हुए लिखते हैं-"याचिते प्रत्यहं तण्डुलादियाञ्चायाम् मृतम् इति एकम् 'मृतं तु नित्ययाञ्चा स्यात् इति उक्तः।" उक्त विवेचना पर से मृत शब्द का भाव, आशय और परमार्य भलीभांति स्पष्ट हो जाता है।
अमरकोश ही नहीं, दूसरे कोशो में भी मृत का याचित अर्थ किया गया है। प्रमाण-स्वरूप सुप्रसिद्ध कोशो मे से वह अश यहाँ उद्धृत किया जा रहा है
"मृतं स्याद् याचिते।"
-विश्वप्रकाश, तद्विक श्लो० ४, चौखवा सिरीज मुद्रण । "मृतं मृतो याचिते च ।"-द्विस्वर काण्ड, श्लो० २०१
-जैनाचार्य हेमचन्द्र रचित, "अनेकार्थ सग्रह", निर्णयसागर मुद्रण । "मृतं तु याचितम् । अयाचित स्याद् अमृतम् ।"
-आचार्य हेमचन्द्र रचित, अभिधान चिन्तामणि, का० ३, श्लो० ५३०
इस प्रकार अमरकोश आदि इतर कोशो मे और स्वय जैनाचार्य प्रणीत कोशो मे भी, जब कि मृत शब्द याचित अर्थात् भिक्षा के अर्थ मे सुप्रसिद्ध है, तब भगवती सूत्र के 'मडाई'-'मृतादी' शब्द का
' प्रस्तुत सन्दर्भ मे मनु स्मृति का उल्लेख भी दृष्टव्य है :
ऋतं उञ्छशिलं ज्ञेयं, अमृत स्याद् अयाचितम् । मृतं तु याचितं भकं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ।।
-अध्या० ४ श्लोक ५