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जैन अंग सूत्रों के विशेष विचारणीय
कुछ शब्द और प्रसंग
प्राध्यापक-पण्डित वैचरवास जीवराज बोशी
१. मडाई
जिस प्रकार वैदिक सन्यासी निर्दोप भिक्षा के द्वारा अपना सावनामय जीवन यापन करता था, उसी प्रकार जैन श्रमण भी अपने चित्त के राग-द्वेषात्मक वैभाविक सस्कारो को हटाने के लिए और अन्तर्वृत्ति को समता-पूर्ण बनाने के लिए, देह के माध्यम से जान और तपोमय साधना को विवेक पूर्वक सम्पन्न करते हुए, निरवद्य भिक्षा से ही अपना संयमी जीवन यापन करता रहा है । इसी कारण जैन श्रमण का एक "भिक्षु" नाम भी सुप्रसिद्ध हो गया है।
व्याख्या-प्रजाप्ति-भगवती सूत्र नामक पांचवें अग सूत्र मे एक जगह "भिक्षु" के स्थान पर जैननिग्रन्थ को "मडाई" विशेषण से भी सम्बोधित किया गया है । भगवती सूत्र गतक २, उद्देशक १ प्रश्न १३ के मूल पाठ मे "मडाई" शब्द का प्रयोग इस प्रकार है:
"मडाई गंभते । निगठे........."
भगवती सूत्र के वृत्तिकार आचार्य अभयदेव सूरी उक्त "मडाई" शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं, कि "मड","आई" इन दो शब्दो से "मडाई" शब्द बना है :-"मृतादी प्रासुक-भोनी उपलक्षणत्वात् एषणीयादी च-" वृत्तिकार की सूचना के अनुसार "मृतम् अत्ति इति मृताऽदी-" इस प्रकार मृतादी शब्द निष्पन्न होता है । और इस मृतादी का ही प्राकृत भाषा मे "मडाई रूपान्तर होता है । सर्व साधारण