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गुरुदेव यो रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
आचारांग-चूणि
इसमे साधु के आचार का वर्णन है । प्रसगवा अन्य भी बहुत मे वर्णन आ जाते है । चूणि संस्कृत और प्राकृत का मिश्रित रूप होता है । भापा सरल और सुबोध्य होती है । वीच-बीच में विषय को स्पष्ट करने के लिए कथानक भी आ जाते हैं। कथानकों में लोक-कथाएँ बहुत है। यहाँ पर एक लोक-कया का नमूना देखिए -
"एगम्भि गामे एक्को कोडुबिओ धणमन्तो बहुपुत्तो य । सो वुड्ढी भूतो पुत्तेसु भर सणसति ।"
"एक्कम्मि गामे सुइवादी। तस्स गामस्स एगस्स गिहे केणइ च्छिप्पति, तो चउसद्वीए मट्टियाहि सहाति । अण्णदा यस्स गिहे बलद्दो मतो।"
उक्त दोनो खण्डो के अध्ययन से अध्येता भली-भाति समझ सकता है, कि चूणि की भापा कितनी सरल और शैली कितनी रोचक है ।
चूणिकार शब्दो का अर्थ भी बहुत सरल भाषा मे समझाता है। यहाँ पर "भूअ, खुज्ज और वडभ" शब्द की व्याख्या देखिए -
"बहिरत ण सुरणेति, भूओ । खुज्जो बामणो । बडभेत्ति, जस्स बडभ पिट्ठीए णिग्गत ।"
सूत्रकृतॉग-चूणि
इसमे दार्शनिक तत्त्वो की व्याख्या की है । लोक-कथाओ का उल्लेख इसमे भी बहुत है । प्रसगवश विभिन्न देशो की रीति-नीतियो का वर्णन आता है । जैसे गोल्ल देश मे यह प्रथा थी, कि यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति की हत्या करदे, तो वह उसी प्रकार निन्दा का पात्र होता था, जैसे ब्राह्मण की घात करने वाला। ताम्रलिप्ति नगरी मे डाँस बहुत होते थे। मल्ल जाति के लोगो मे यह परम्परा थी, कि यदि कोई अनाथ मल्ल मर जाए, तो सब मिल कर उसका सस्कार किया करते थे। इससे सहयोग की भावना अभिव्यक्त होती है।
इसमे आगम प्रसिद्ध आर्द्रकुमार की जीवन घटना का वर्णन है। वह अनार्य देश का रहने वाला था। फिर भी आर्य देश के रहने वाले अभयकुमार के साथ उसकी मित्रता थी। इससे प्रकट है, कि प्रेमभाव मे आर्य और अनार्य-भाव बाधक नहीं होता है। दशवकालिक-चूणि
इसमे माधु के आचार का वर्णन है । जिनदास महत्तर की यह प्रसिद्ध कृति एव रचना है। भावना, भाषा और अली की दृष्टि से यह चूणि बहुत सुन्दर है। इसमे प्राकृत भाषा के शब्दो की व्युत्पत्ति वर्ड