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व्याख्या-साहित्य एक परिशीलन
रोचक ढग से दी है। उदाहरण के लिए "दुम, रुक्ख और पादप" शब्दो की व्युत्पत्ति और व्याख्या का नमूना देखिए -
"दुमा नाम भूमीए, आगासे य होसु माया, दुमा। रत्ति पुहवी, खत्ति आगास, तेसु दोसु वि जहा ठिया, तेण रुक्खा । पादेहि पिबन्तीति पादपाः । पादा मूल भण्णति ।"
इसमे कही-कही पर कथोपकथन की शैली भी उपलब्ध होती है। इसके पढने से एकाकी और नाटको जैसा आनन्द मिलता है। देखिए, कितना सुन्दर सम्वाद है -
कि मच्छे मारेसि! न सिक्केमि पातु ।
भरे, तुम मन्ज पियसि !" इस चूणि मे भी बहुत-सी लोक-कथाओ का, लोक परम्पराओ का वर्णन यथाप्रसग दिया गया है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी चूणियो का अध्ययन बहुत महत्त्व रखता है। उत्तराध्ययन-चूर्णि
यह चूणि भी जिनदास महत्तर की एक सुन्दर कृति है। यह बहुत विस्तृत नहीं है । संस्कृत और प्राकृत मिश्रित एक लोक-कथा का नमूना देखिए -
"एगो पसुवालो प्रतिदिन मध्याह्न-गते रवी अनासु महान्यग्रोध-तरु-समाश्रितासु तस्युणो निवन्नो वेणुविदलेण अजोद्गीर्ण कोलास्थिभि. तस्य वटस्य छिद्रीकुर्वन् तिष्ठति।"
इसमे काश्यप शब्द की व्युत्पत्ति देखने के योग्य है । देखिए, क्या व्युत्पत्ति है -
"काशः उच्छु, तस्य विकार, कास्य , रस , स यस्य पान, काश्यप-उसभसामी, तस्य जोगा जे जाता ते कासवा, वद्धमाणो सामी कासवो।"
प्रसगवश इस चूणि मे तत्त्व-चर्चा और लोक-चर्चा भी उपलब्ध होती है। नन्दो-चूणि
इसमे पाँच ज्ञानो का वर्णन है। इस चूणि मे माथुरी वाचना का उल्लेख मिलता है । द्वादश वर्ष का अकाल पडने पर समस्त साधु सघ बिखर गया और बाद में एकत्रित हुआ था। कहा जाता है, कि आचार्य स्कन्दिल ने मथुरा मे आकर साधु-सघ को अनुयोग की शिक्षा दी थी। प्रसगवश इसमे अन्य भी बहुत-सी बातो का उल्लेख है, जो इतिहास की दृष्टि से बहुत उपयोगी और महत्वपूर्ण है। लोक-कथाएँ और लोक-रूपक बहुत है।
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