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________________ व्याख्या साहित्य : एक परिशीलन मे उसी को ग्रहण किया, नया कुछ भी लिख नही सके । आचार्य ने पुरातन शैली से ही ज्ञान का वर्णन किया, उसे तर्क-शैली से प्रस्तुत करके दार्शनिक-युग की समग्र प्रमाण विवेचना को आत्मसात् कर लिया। इसकी ज्ञानवाद की विवेचना का गम्भीर अध्ययन करने के बाद में अध्येता के मुख से एक ही बात निकलती है, कि 'जो कुछ यहाँ पर है, वही अन्यत्र भी है, और जो कुछ यहाँ पर नहीं है, वह अन्यत्र कही पर भी दृष्टि-गोचर नहीं होता। ज्ञानवाद की गम्भीरता का इसमे यथार्थ दर्शन उपलब्ध होता है ।" ___इमका गणधरवाद भी बहुत विशाल और गम्भीर है । समग्र भारतीय दर्शन का इसमे निचोड आ जाता है। एक प्रकार से गणधरवाद भारतीय दर्शन का प्रतिनिधि ग्रन्थ कहा जा सकता है । दर्शन-शास्त्र का ऐसा कोई विचार नही, जो इसमे न आ गया हो । जीव और आत्मा, बन्ध और मोक्ष, लोक और परलोक, पुण्य और पाप, स्वर्ग और नरक तथा भूतवाद और अध्यात्मवाद, सब पर आचार्य ने अधिकार पूर्वक लिखा है । ग्यारह गणधरो का तत्वज्ञान इसमे समाहित हो जाता है। पूर्वपक्ष गणधरो का और उत्तरपक्ष महाश्रमण भगवान् महावीर का । अपनी शका का समाधान मिल जाने पर सब गणधर भगवान् का शिप्यत्व स्वीकार कर लेते है। इसी आधार पर यह गणधरवाद कहा जाता है। इसका निन्हववाद भी कम विशाल नहीं है। इसमे निन्हवो के विचार भेद को लेकर बहुत विस्तार से लिखा गया । अत यह भी ज्ञानवाद और गणधरवाद की भाँति एक स्वतन्त्र ग्रन्थ कहा जा सकता है । निन्हवो की चर्चा बहुत ही रोचक और सुन्दर है । तर्क और प्रतितों का दगल देखने योग्य है । आचार्य को शैली इतनी प्रशस्त और सुबोध्य है, कि विपय गम्भीर होने पर भी अध्येता उसके अध्ययन से ऊबता नही है। जैन सस्कृति मे भी समय-समय पर कैसे और कितने विचार भेद होते रहे है । इस बात का प्रमाण इस निन्हववाद के अध्ययन से मिल जाता है । इससे मिथ्या आग्रह और सम्यग् आग्रह का पता लगता है । इसमे एकान्त और अनेकान्त की चर्चा बहुत मधुर है। सामायिक का स्वरूप बहुत विस्तार से और निक्षेप पद्धति से बताया गया है। वस्तुत विशेपावश्यक भाष्य आवश्यक के प्रथम सामायिक आवश्यक पर ही लिखा गया है । एक मे ही आचार्य ने सब कुछ कह दिया, फिर आगे कुछ कहना ही शेप नही रहा। नमस्कार प्रकरण भी बहुत लम्बा है । नमस्कार क्या है ? उसका फल क्या है ? आदि पर गम्भीर विचार किया गया है । इसमे भी निक्षेप पद्धति से कथन है। निक्षेपो की विचारणा लम्बी और बहविध है। निक्षेप की परिभाषा देकर, फिर उसके भेद बताकर अन्त मे उसे घटाने की विधि अथवा पद्धति का वर्णन है । मुख्य रूप मे निक्षेप के चार भेद होते है । नयाधिकार मे नयो का विस्तार से कथन किया गया है। नयो का स्वरूप, नयो के भेद और नयो की योजना पद्धति का कथन किया गया है । मूल मे दो नय और फिर उसके मात भेदो का वर्णन किया है। प्रसगवश अन्य भी बहुत से विपयो की चर्चणा विस्तार के साथ की है ।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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