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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ
के एक-एक शब्द का अर्थ करने के बाद उसका भावार्थ भी स्पष्ट किया गया है। अनेक शब्दो की व्युत्पत्ति भी बहुत सुन्दर रूप मे लिखी है।
भाष्य मे सबसे पहले प्रवचन को नमस्कार किया गया है। फिर प्रवचन शब्द की अनेक प्रकार से व्याख्या की है । इसके बाद मे विस्तार के साथ प्रायश्चित्त शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्या की है ? कहा गया है
"पाव छिवति जम्हा,
पायच्छित ति भण्णेति तेण ।"
___ क्योकि यह पाप का छेदन करता है, इसलिए प्रायश्चित्त कहा जाता है।
पाँच प्रकार के व्यवहारो का वर्णन किया गया है-जीत, आगम, श्रुत आज्ञा और धारणा । पाचो का विस्तार के साथ मे वर्णन है। जीत व्यवहार को व्याख्या की है, कि जो परम्परा से प्राप्त हो, महाजन सम्मत हो और जिसका सेवन बहुश्रुत पुरुषो ने बार-बार किया हो। यथाप्रसग अन्य बातो का भी उल्लेख किया है।
सक्षेप मे पाँच ज्ञानो का वर्णन बहुत सुन्दर किया है । भक्त परिज्ञा, इगिनी मरण और पादपोपगमन इन तीन प्रकार की मारणान्तिक साधनाओ का विवेचन किया है।
जोत कल्प सूत्र और उसके भाष्य का सम्पादन आगम प्रभाकर श्री पुष्प विजय जी महाराज ने किया है। उसका प्रकाशन भी हो चुका है । जीतकल्प भाष्य पर आचार्य सिद्धसेन ने चूणि लिखी थी। यह सिद्धसेन, दिवाकर सिद्धसेन से भिन्न है । चन्द्र सूरि ने चूणि पर विषम पद व्याख्या लिखी है । जीतकल्प सूत्र पर भी एक चूणि लिखी थी। ऐसा उल्लेख सिद्धसेन ने किया है।
पञ्चकल्प-भाष्य
पञ्चकल्प सूत्र की परिगणना छेद सूत्रो मे की जाती है । इसमे साधु के आचार और विचार का वर्णन था । इस पर एक भाष्य लिखा गया था, जिसे पञ्चकल्प भाष्य कहा जाता है। कहा जाता है कि यह आज कल उपलब्ध नहीं है । परन्तु "जैन-भारती" के वर्ष ११ अक २८ मे श्री अगरचन्द्र जी नाहटा का एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमे पञ्चकल्प के विषय मे लिखा है
“पञ्चकल्प को अनुपलब्ध बताया गया था। पर बृहत् टिप्पणी मे पञ्चकल्प का परिमाण ११३३ श्लोको का पाया जाता है और मुझे प्राप्त प्रति मे केवल १८४ गाथाएं ही है।"
कल्प का अर्थ है-आचार । साधु के आचार का ही इसमे वर्णन है । पञ्चकल्प का अर्थ है-पांच प्रकार का आचार । बृहत्कल्प भाष्य मे छह प्रकार के, सात प्रकार के, दश प्रकार के बीस प्रकार के और बयालीस प्रकार के कल्पो का भी उल्लेख है । पञ्चकल्प के विषय मे अधिक ज्ञातव्य उपलब्ध नहीं होता।
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