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गुरुदेव श्री रत्ल मुनि स्मृति-ग्रन्थ
इसमे आर्य रक्षित, आर्य कालक, सातवाहन, प्रद्योत और चाणक्य का उल्लेख है । कुशिष्य को महाकल्प श्रुत पढाने का निषेध है। जहाँ कुत्ते अधिक हो, वहाँ साधु को विहार का निषेध है। तप, सत्व, एकत्व, सूत्र और बल-इन पाँच भावनाओ का विवेचन है। मथुरा मे देव-निर्मित स्तूप का वर्णन यहां पर भी है । भिन्न-भिन्न देशो की भाषा और भूषा का विस्तृत वर्णन किया गया है।
प्रतीत होता है, उस युग मे, नारी की स्वतन्त्रता को अच्छा नही समझते थे। व्यवहार भाष्य युग की नारी मे और मनु स्मृति की नारी मे बहुत कुछ समानता है । भाष्य मे नारी के लिए कहा गया है
जाया पितिव्वसा नारी, दत्ता नारी पतिव्वसा।
विहवा पुत्तवसा नारी, नत्यि नारी सयवसा॥ बचपन मे लडकी पिता की सरक्षा में रहती है, यौवन मे पति के हाथो मे, और विधवा हो जाने पर पुत्र के अधिकार मे । बेचारी नारी के भाग्य मे तो दासता ही लिख दी गई है। यहाँ भाष्यकार वैदिक संस्कारो से प्रभावित प्रतीत होते है । अथवा उस युग मे यही सामाजिक नियम होगा। भारत मे तो आज भी अधिकतर यही परम्परा चाल है।
भाष्य में इस बात का भी उल्लेख है, कि राजसभा मे, वाद-विवाद मे पराजित होने पर अपमानित होना पड़ता था। अन्य लोगो द्वारा भी साधुओ को पीडा मिलती थी। वर्षा-काल में किस स्थान मे रहकर वर्षा-वास करना, यह भी उस युग की एक समस्या थी। इस प्रकार साधु-जीवन से सम्बद्ध अनेक वर्णन व्यवहार मे आते है।
निशीथ-भाष्य
चूर्णिकार के मतानुसार नियुक्ति की प्राकृत पद्यमयी व्याख्या का नाम भाष्य है । निशीथ भाष्य भी कल्प और व्यवहार की भांति बहुत विशाल है । इसमे साधु-जीवन के आचार का विस्तार के साथ वर्णन है । इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन, ज्योतिष और भाषा की सामग्री इसमे सर्वत्र बिखरी पड़ी है। इसमे निम्रन्थ और निम्रन्थी सघ के कर्तव्य और अकर्तव्य के विधि-विधान के मौलिक उपदेशो का सुन्दर सग्रह किया गया है । उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का सागोपाग कथन किया है। विवेक-शून्य आचार से या तो शिथिलाचार का पोषण होता है, या फिर केवल अर्थ-शून्य बाहरी आडम्बर की अभिवृद्धि होती है।
निशीथ-भाष्य की बहुत-सी गाथाएं कल्प और व्यवहार से मिलती-जुलती है । इसमे बताया गया है, कि साधक को सदा राग-द्वेष की भावनाओ से दूर रहना चाहिए। विवेक से किया गया कार्य निर्दोष होता है -
"जह सध्वसो अभावो,
रागादीण हवेज्ज णिहोसो।"