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________________ व्याख्या-साहित्य एक परिशीलन अधिकरण, मोक और परिवासित आदि का विस्तार से वर्णन है। कटक, उद्धरण, दुर्ग और क्षिप्तचित्त आदि का विवेचन किया है, मथुरा मे देवनिर्मित स्तूप का वर्णन है, जिसके लिए कभी जैन और बौद्धो मे तीव्र सघर्ष चला था। जीर्ण, खण्डित और अल्पवस्त्र धारण करने वाले निम्रन्थ को भी अचेलक कहा गया है । आठ प्रकार के राज-पिण्ड का वर्णन किया है। कभी किसी वस्तु विशेप पर यदि साधुओ मे मतभेद अथवा सघर्ष हो जाए, तो क्या करना चाहिए ? कहा गया है कि "विणास-धम्मीसु हि कि ममत्त ।" ससार की वस्तुएं विनाश-शील है । अत उन पर ममता क्यो की जाए ? ऐसा विचार करो। सबको अपने समान समझो । कभी किसी के साथ बुरा व्यवहार मत करो। कहा है "ज इच्छसि अप्पणतो, ज च ण इच्छसि अप्पणतो । त इच्छ परस्स वि या, एत्तियग जिण-सासणय ।" जैसा व्यवहार तुम दूसरो से चाहते हो, वैसा ही तुम भी दूसरो के साथ करो । भगवान् के उपदेश का सार यही है, और अहिंसा का व्यापक दृष्टिकोण भी यही है। व्यवहार-भाष्य परिमाण मे व्यवहार-भाष्य बृहत्कल्प भाष्य से कुछ ही छोटा होगा, अन्यथा बरावर है । व्यवहार भाष्य पर मलयगिरि ने विवरण लिखा है। व्यवहार में साधु और साध्वियो के आचार, विचार, तप, प्रायश्चित्त और चर्या का वर्णन है । आलोचना का बहुत विस्तार किया गया है । शुद्ध भाव से आलोचना करना साधु-जीवन के लिए प्रधान कर्तव्य माना है । जैसे वालक अपने माता-पिता के सामने अपने अच्छे और बुरे कर्मों को स्पष्ट रूप मे कह देता है, वैसे ही शिष्य को भी अपने आचार्य के समक्ष अपने अपराध को स्पष्ट स्वीकार कर लेना चाहिए, जिससे उस का प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि की जा सके । जीवन की परम-शुद्धि साधक के जीवन को पावन और पवित्र बना देती है । गण के अथवा गच्छ के सचालन के लिए आचार्य को परम आवश्यकता है । नृत्य के बिना नट का मूल्य नही, नर के बिना नारी का मूल्य नही, धुरी के विना चक्र का मूल्य नही, वैसे ही आचार्य के बिना गण अथवा गच्छ का मूल्य नही। जैसे बल और वाहन के बिना राजा अपने राज्य की रक्षा नही कर सकता, वैसे ही आचार्य भी अपनी सम्पदाओ से ही अपने गण की रक्षा कर सकता है, अन्यथा नहीं। कदम-कदम पर साधुओ को साधना पथ पर अडोल और अकम्प रहने के लिए कहा गया है। तोन प्रकार के हीन-जन होते है जाति-जुगित, जैसे श्वपच, डोम्ब और किणिक । कर्म-जुगित, जैसे नट व्याध और रजक आदि । शिल्प-जुगित, जैसे पट्टकार और नापित। ६७
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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