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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
परिचय से प्रीति, प्रीति से रति, रति से विश्वास और विश्वास से प्रणय की अभिवृद्धि होती है। रति का अर्थ है-आसक्ति और प्रणय का अर्थ है-राग । अत साधु को कभी किसी के साथ रति और प्रणय नहीं करना चाहिए। इससे साधु के सयमी जीवन का पतन हो जाता है।
___ सघ की रक्षा कैसे की जाए? विशेषत तरुणी साध्वियो की रक्षा का प्रश्न वडा ही पेचीदा था। विहार-यात्रा मे आहार-पानी की समस्या विकट बन जाती थी। अत उस युग के आचार्य एक देश से दूसरे देश मे जाने के लिए सार्थवाहो की खोज मे रहते थे । सार्थवाहो का वर्णन बहुत ही रोचक है।
आचार्य अपने शिष्यो को उपदेश दिया करता था, कि स्वाध्याय मे कभी प्रमाद मत करो। प्रमाद से सचित ज्ञानराशि विस्मृत हो जाती है । आचार्य कहता है
"जागरह नरा | णिच्चं,
जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धी । जो सुवति ण सो धणो;
___ जो जग्गति सो सया षण्णो॥"
साधको | सदा सावधान रहो। कभी प्रमाद मत करो। जागरण-शील साधक की बुद्धि सदा विकसित रहती है । जो सोता है, वह अपने ज्ञान-धन को खोता है, और जो जागता है, वह नये ज्ञान का प्राप्त करता है।
इस भाष्य मे पाँच प्रकार के वस्त्रो का वर्णन है-जागमिक, भागिक, सानक, पोतक और तिरीट । भाण्डशालाओ का वर्णन है । उस युग मे खाने-पीने की बहुत-सी वस्तुओ का उल्लेख है।
शील और लज्जा को नारी-जीवन का विशेष भूपण बताया है । नारी का आभूपण वस्तुत शील और लज्जा ही है
"ण भूसण भूसयते सरीर
सोल-हिरी य इथिए । गिरा हि सखार-जया वि ससती
अपेसला होइ असाहु-वादिणी ॥" आभूपणो से नारी का शरीर शोभित नहीं होता, उसका भूपण तो शील और लज्जा ही है। मधुरा गिरा सवको प्रिय लगती है, और कटु वचन सब को पीडा देता है।
उज्जयिनी, राजगृह और तोसली नगर के विशाल वाजारो का वर्णन है, जहां पर सब कुछ मिलता, कुछ भी अप्राप्य नही था । अनेक प्रकार के परकोटी का वर्णन भी है। आहार-विधि, पाक-विधि,