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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति ग्रन्थ
राजगृह, मिथिला, द्वारवती और कोल्लाक ग्राम आदि का उल्लेख है। विवाह, मृतक पूजन, दत्ति और स्तूप आदि सामाजिक परम्पराओ का वर्णन मिलता है । वन्दन, ध्यान, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग आदि को निक्षेप पद्धति से व्याख्या की गई है।
वर्णन मे कही-कही पर यथा प्रसग मुन्दर सूक्तियाँ सहज ही प्रकट हो जाती है । जैसे
"नहा खरो चरण-भार-बाही,
भारस्स भागी न हु चदणस्स। गर्दभ कभी भी चवन के महत्व का अकन नहीं कर सकता । वह केवल उमके भार का ही अनुभव कर पाता है।
"हय नाण किया-होण।" क्रिया-रहित ज्ञान व्ययं है । जान की सफलता तभी है, जब वह आचार में उतरे।
"नहु एग-बक्केण रहो पयाइ।" एक पहिये से रथ कभी नहीं चलता। रथ की गति के लिए दोनो चक्र स्वस्थ और सशक्त होने चाहिए।
इसमे धर्म, दर्शन, तत्त्व और संस्कृति के उपकरण विखरे पड़े है। दशवकालिक-नियुक्ति
इसमे साधु के आचार का वर्णन किया गया है। अहिंसा, सयम और तप का सुन्दर वर्णन है। श्रमण की विहगम से तुलना की है । यथा प्रसग धान्य, रत्न और अनेक विध पशुओ का वर्णन किया है। भोग और काम से दूर रहने का हृदय-स्पी उपदेश दिया है। दो प्रकार के कामो का कथन है-- सप्राप्त और असप्राप्त ।
इस पर भी अनेक टीकाएं और चूणि लिखी गई है। जिनदास महत्तर की चूणि प्रसिद्ध है। इसमें बताया गया है, कि साधक को माधना के मार्ग पर किस प्रकार स्थिर रहना चाहिए। पतन से कैसे बचना चाहिए। कथा के चार भेदो का आक्षेपणी, विक्षपनी, सवेगनी और निवेदनी का सुन्दर वर्णन है । यथाप्रसग सुभापित वचन भी आते रहते हैं। उत्तराध्ययन-नियुक्ति
___ इसमे उत्तर और अध्ययन शब्दो की व्याख्या की है । श्रुत और स्कन्ध को समझाया गया है । गलि और आकीर्ण का दृष्टान्त देकर शिप्यो की दशा का वर्णन किया है। कपिल और नमि का उस्लेख