________________
गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
सके। फिर आज तो मूल आगमो के अनुसघान को बहुत बडी आवश्यकता है। मूल आगमो मे जो विभिन्न विषय आए है, उन पर भी तुलनात्मक दृष्टिकोण से विचार होना चाहिए। आगमो मे तथा उसके परिवार मे धर्म, दर्शन और सस्कृति के मूल तत्व भरे पडे है । अभी तक आगमो का अध्ययन-अध्यापन केवल धार्मिक दृष्टि से ही होता रहा है, परन्तु अब समय आ गया है, कि उसका अध्ययन, मनन और मन्थनसस्कृति, समाज और इतिहास की दृष्टि से भी हो। हर्ष है, कि कुछ विद्वानो का ध्यान इस विषय पर गया है, और कुछ ने तो उस प्रकार के अध्ययन ग्रन्थ के रूप मे प्रस्तुत भी किए है। किन्तु इस दृष्टिकोण का व्यापक प्रचार और प्रसार होना चाहिए । मूल आगमो के विभिन्न विषयो पर विभिन्न दृष्टिकोण से लिखने का यह युग है। केवल सस्कृत और प्राकृत टीकाओ से आज का जन-मानस सन्तुष्ट नही हो सकता।
नियुक्ति-परिचय
यह आगमो पर सब से पहली और सब से प्राचीन व्याख्या मानी जाती है । नियुक्ति प्राकृत-भाषा मे और पद्यमयी रचना है। सूत्र मे कथित अर्थ जिस मे उपनिबद्ध हो, उसे नियुक्ति कहा गया है"णिज्जुता ते अत्या, ज बद्धा तेण होइ णिज्जुती ।" आचार्य हरिभद्र ने नियुक्ति की परिभाषा इस प्रकार की है-"निर्युक्तानामेव सूत्रार्थाना युक्ति-परिपाटया योजनम् ।" 'नियुक्ति' शब्द की प्राकृत और सस्कृत दोनो परिभाषामो से यही फलितार्थ होता है, कि सूत्र में कथित एव निश्चित अर्थ को स्पष्ट करना, नियुक्ति है। दूसरे शब्दो मे "नियुक्ति प्राकृत-गाथाओ मे आगमो पर लिखा सक्षिप्त विवरण है।" आगे चलकर नियुक्ति पर भाष्य और टीका लिखी गई।
__ नियुक्ति की उपयोगिता यह है कि सक्षिप्त और पद्यबद्ध होने के कारण यह साहित्य सुगमता के साथ मे कण्ठस्थ किया जा सकता था। नियुक्ति की भाषा प्राकृत और रचना छन्द मे होने से इसमे सहज ही सरसता और मधुरता की अभिव्यक्ति होती है।
नियुक्ति के प्रणेता आचार्य भद्र बाहु माने जाते है। कौन-से भद्रबाहु ? प्रथम अथवा द्वितीय। इस विषय मे सभी विद्वान एकमत नही है । परन्तु कुछ इतिहास-विदो का अभिमत है, कि नियुक्ति रचना का प्रारम्भ तो प्रथम भद्रबाहु से ही हो जाता है। नियुक्तियो का समय सवत् ४०० से ६०० तक माना गया है। किन्तु ठीक-ठीक काल निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है। काल निर्णय करना, यहाँ अभीष्ट नहीं है।