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________________ व्याख्या-साहित्य एक परिशीलन नही लिखा । अत अर्थ, भगवान् का और सूत्र, गणधर का। उक्त कथन का फलितार्थ यह हुआ, कि अर्थागम के प्रणेता तीर्थकर होते है, और शब्दागम के प्रणेता गणधर । परन्तु आगमो का प्रामाण्य, गणधर कृत होने से नहीं है, अपितु तीर्थकर की वाणी होने से है। गणधरो के सिवा स्थविर भी आगम रचना करते है । गणधर कृत आगमो मे और स्थविर कृत आगमो मे, एक बहुत वडा अन्तर यह रह जाता है, कि गणघर कृत आगम अङ्ग प्रविष्ट कहे जाते है, और स्थविर कृत अनग प्रविष्ट अर्थात् अङ्ग बाह्य कहे जाते है। तीर्थङ्कर के मुख्य शिष्य गणघर होते है, और अन्य श्रमण जो या तो चतुर्दश पूर्वी है, अथवा दशपूर्वधर है-स्थविर होते है। परन्तु गणधर कृत और स्थविर कृत आगमो का आधार तीर्थडुर वाणी ही होती है, इसी आधार पर उनकी रचना प्रमाण भूत होती है। गणधर कृत आगम तो प्रमाणित होते ही । है, परन्तु स्थविर कृत आगम भी इस आधार पर मान लिए गए है, कि चतुर्दश पूर्वी और दश-पूर्वधर नियमत सम्यग्दृष्टि होते है । अत उनके ग्रन्थ भी मूल आगमो के अविरुद्ध ही होते है। उक्त तर्क पर ही गणधर कृत और स्थविर कृत आगमो का प्रामाण्य, जैन परम्परा को स्वीकृत है। इस दृष्टिकोण से आगम प्रणेता तीन है-तीर्थपूर, गणधर एव स्थविर अर्थात् चतुर्दश पूर्वी और दश-पूर्वधर । शेप आचार्यों की कृतियो के सम्बन्ध मे यह विचार है, कि जो वात वीतराग वाणी के अनुकूल है, वह प्रमाणित और शेप सब अप्रमाणितहै। वाचना-क्रयो पहली वाचना-वर्तमान में उपलब्ध आगम वाइ मय, अपने प्रस्तुत रूप में देवधि गणि क्षमाश्रमण के युग मे लिखित हुए है । महावीर निर्वाण के बाद मे, एक लम्बे दुभिक्ष के कारण समग्र श्रमण-सघ इधरउधर विखर गया था। स्थिति सुधरने पर पाटलीपुत्र मे, आचार्य भद्रबाहु की अध्यक्षता मे श्रमण-सघ एकत्रित हुआ और समस्त श्रमणो ने मिल कर एकादश अङ्गो को व्यवस्थित किया । परन्तु बारहवाँ अङ्ग दृष्टिवाद का विलोप अथवा विस्मरण हो चुका था। दूसरी वाचना-मथुरा मे, आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में की गई। जो श्रमण वहाँ एकत्रित हुए थे, उन्होने एक-दूसरे से पूछ कर, जो स्मृति मे रह सका, उसके आधार पर श्रुत को सकलित करके व्यवस्थित किया गया। जैन अनुश्रुति के अनुसार लगभग इसी समय वल्लभी मे भी नागार्जुन सूरि ने श्रमणसघ को एकत्रित करके श्रुत-साहित्य को व्यवस्थित करने का सत्प्रत्यन किया था । तीसरी वाचना-वल्लभीनगर मे देवधि गणि क्षमा-श्रमण की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। कालदोप से और परिस्थिति-वश, विस्मृत श्रुत-साहित्य को फिर से सगृहीत एव सकलित करने का श्रमणो ने प्रयत्न किया । वर्तमान मे आगमो का जो प्रारूप है, वह इसी तीसरी वाचना का अमृत-फल है । देवधिगणि ने उक्त सकलित श्रुत साहित्य को लिपिबद्ध भी करा लिया था। अत उनका प्रयत्न, पूर्व प्रयत्लो की अपेक्षा अधिक स्थायी रह सका, और आज भी वह उपलब्ध हो रहा है-वर्तमान प्रस्तुत आगमो के रूप मे । १५
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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