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________________ गुरदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ है। सामान्य रूप से छेद-सूत्र अपवाद मार्ग के सूत्र कहलाते है। इसमे मुख्य रूप से साध्वाचार का वर्णन है। फिर भी उसमे कही-कही श्रावक के आचार का भी उल्लेख है । जैसे श्रावक की ११ प्रतिमा, गुरु की ३३ आगातना नही करना, और आलोचना करना आदि श्रमण के आचार का वर्णन है। निशीथ-मूत्र आचाराग-मूत्र के द्वितीय श्रुतस्कव की पांचवी चूला है। इसका अयारप्पकप्पआचार-प्रकल्प नाम है। इसमे साध्वाचार में दोप लगाने वाले साधक के लिए प्रायश्चित की व्यवस्था की गई थी। अत इसे आचाराग से पृथक कर दिया और जब छेद-मूत्रो की व्याख्या की गई, तब इसे छेद-सूत्रो मे स्त्र स्थान दे दिया। इस आगम मे २० उद्देशक है । पहले मैं : वोल है, उनका सेवन करने, कराने और अनुमोदन करने वाले को मासिक प्रायश्चित आता है। दूसरे मे ६०, तीसरे मे ८१, चौथे मे सौ से कुछ अधिक और पांचवे मे ८० वोल है, उनका सेवन करने कराने और अनुमोदन करने वाले को लघु-मासिक प्रायश्चित आता है । छठे से उन्नीम तक मे क्रमश ७७, ६१, १७, २८, ४७, ९२,३०, ६०, ४५, १५४, ५०, १५१, ६४, और ३६ वोल है और इनका सेवन करने, करवाने और अनुमोदन करने वाले को चातुर्मासिक प्रायश्चिक आता है । २० वे उद्देशक मे मासिक, लघु-मासिक और चातुर्मासिक प्रायश्चित की विधि का उल्लेख है। निशीथ भाप्यकर ने छेद-सूत्रो को उत्तम श्रेष्ठ मूत्र माना है ।' क्योकि इसमे आचार-शुद्धि का वर्णन है। २ बृहत्कल्प-सूत्र-कल्प या बृहत्कल्प का कल्पाध्ययन नाम भी मिलता है। यह पर्युपण-कल्प या कल्प-मूत्र से भिन्न है। यह आगम श्रमण आचार के प्राचीनतम ग्रन्थो मे मे एक है । निशीथ और व्यवहार की तरह इसकी भापा भी प्राचीन है। इसमे श्रमण-श्रमणियो के सयम मे साधक-कल्पनीय और सयम मे वाधक-अकल्पनीय स्थान, वस्त्र, पात्र आदि विस्तृत विवेचन है, इसलिए इसे कल्प कहते है । आचार्य मलयगिरि का कथन है कि प्रस्तुत आगम नवमे पूर्व के आचार नामक तृतीय वस्तु के ३० वे प्राभूत मे से लिया गया है, जिसमे प्रायश्चित का विधान है। इसमें छह उद्देशक है । इसमे मुख्य रूप में साधु-माध्वियो के आचार का वर्णन है । इसमे सयम मे वाधक बनने वाले पदार्थों के लिए 'न कप्पई-ग्रहण करना नही कल्पता कह कर ग्रहण का निषेध किया है और सयम मे सहायक पदार्थों के लिए 'कप्पई'-कल्पता है, करने का प्रयोग करके उसको ग्रहण करने का आदेश दिया है। दम प्रकार के प्रायश्चित का तथा किस प्रकार के दोप का सेवन करने वाले को कैसा प्रायश्चित देना इसका वर्णन है । इसमे करप के : भेदो का भी उल्लेख है। ३. व्यवहार-सूत्र-इसमे १० उद्देशक है। प्रथम उद्देशक मे बताया है कि आलोचना (conlession) सुनने वाला और करने वाला श्रमण कैसा होना चाहिए, आलोचना कैमे करनी चाहिए और 'निशीय भाष्य, गाथा, ६१८४। ४८
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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