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आगम-साहित्य एक अनुचिन्तन पहले पांच द्वारो मे हिसा, झूठ, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच आस्रवो का और अन्तिम पांच द्वारो मे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच सवरो का वर्णन है। इसमे लगभग ५४ प्रकार की अनार्य जाति के नामो एव नव ग्रहो और २८ नक्षत्रो का उल्लेख भी मिलता है, जबकि प्राचीन आगमो मे ८१ ग्रहो की मान्यता का उल्लेख मिलता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत आगम उत्तरकालीन रचना है। इसी कारण इसमे उत्तर-काल मे आचार्यों द्वारा मान्य ६ ग्रहो का वर्णन उपलब्ध होता है। ११. विपाक-सूत्र
प्रस्तुत आगम मे आत्मा द्वारा किए गए शुभाशुभ कर्मों के विपाक का वर्णन है । इसे कर्म विपाक दशाग भी कहते है । भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य, प्रथम गणधर गौतम स्वामी भिक्षा के लिए शहर मे जाते है और वहाँ किसी व्यक्ति को पीडित एवं दुखित देखते है, तो उनका हृदय दया एव करुणा से भर जाता है। उसकी स्थिति को देखकर वे यह तो समझ लेते है कि यह व्यक्ति अशुभकर्म का फल भोग रहा है । परन्तु, यह नही समझ पाते कि इसने कैसा क्रूर कर्म किया था, जिसका प्रतिफल यह भोग रहा है । इसके सम्बन्ध मे वे भिक्षा से लौटकर भगवान से प्रश्न करते है और इसके उत्तर मे भगवान् उन्हे उसके पूर्वभव की कथा सुनाते है और उनके द्वारा सेवित हिंसा, झूठ, चोरी, जारी-व्यभिचार, परिग्रह सचय के लिए लूट-खसोट, तीन कपाय, प्रमाद, पाप-प्रवृत्ति, अशुभ अध्यवसाय एव आर्त-रौद्र ध्यान आदि दोषो का वर्णन करते है और साथ मे यह भी बताते है कि यह नरक, तिर्यञ्च एव मनुष्य योनि मे भयकर वेदना सह आया है, यहां दारण दुख उठा रहा है और अभी इतने लम्बे समय तक यह ससार मे विभिन्न गतियो मे परिभ्रमण करेगा। परन्तु इतना सुनाने के बाद भी भगवान् उसकी विशुद्ध आत्मा को नही भूलते। वे गौतम को स्पष्ट शब्दो मे कहते है कि इतना लम्बा मसार परिभ्रमण करने के बाद ये आत्माएं-जिन्हे आज लोग दुप्ट, पापी एव दुराचारी कहकर धिक्कारते है, मुक्ति को प्राप्त करेगी । इस वर्णन का इतना ही अभिप्राय है कि व्यक्ति अपने क्रूर एव दुष्कर्म का फल अवश्य पाता है, परन्तु उसके दुप्ट कर्म से उसकी आत्मा दुष्ट नही बनती। अस्तु तुम दुष्टता से दूर रहो, दुष्ट व्यक्ति से नहीं । क्योकि दुष्टता का परित्याग करने के बाद एक दिन वह भी सिद्ध-बुद्ध वन जाएगा।
इसके पश्चात् प्रस्तुत आगम मे भगवान् सुख प्रात करने वाले व्यक्तियो के जीवन की तसबीर भी गौतम के सामने रखते है। सुवाहुकुमार आदि के पूर्व भव का वर्णन करते हुए भगवान् यह बताते है कि सयम-निष्ठ, तपस्वी, शीलवन्त और गुणवान साधु को मन, वचन और काय की प्रसन्नता से एव भावना से दान देने वाला व्यक्ति किस प्रकार नरक के बन्धन को तोड लेता है, ससार-सागर से पार हो जाता है, सम्यकत्व के ज्योतिर्मय आलोक से अपने जीवन को आलोकित करता है और सब के हित प्रद सुखप्रद बनता है, सवको प्रिय लगता है और सूख-पूर्वक साधना करके ७-८ भव मे मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि शुभ कार्य करने वाला सुख को प्राप्त करता है और सुख-पूर्वक अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है।
प्रश्न-व्याकरण, १,४. २. प्रश्न-ध्याकरण, ५, १६.