SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्य को स्वीकार करता है, उमे श्रमण, निग्रन्थ, मुनि, माधु या भिक्षु कहा है। परन्तु जो साधक सासारिक विपयो का पूर्णत त्याग नही कर सकता, आणिक त्याग करता है, वह श्रमणोपासक श्रावक या उपासक कहा गया है। आगमो में श्रावक के लिए उपासक एव श्रमणोपासक दोनो शब्दो का प्रयोग मिलता है। प्रस्तुत आगम में भी श्रमणोपासक शब्द का उल्लेख है। फिर प्रस्तुत आगम का नाम श्रमणोपासक दशा न रखकर उपासक दया क्यो रखा, यह एक प्रश्न है ? इसके सम्बन्ध मे कोई स्पाट समाधान नही मिलता है । परन्तु आगम-साहित्य का अध्ययन करने पर इतना ही कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में थावक के लिए उपासक गब्द का सम्बोधन रहा हो, और इसी कारण आगम का नाम भी उपासकदशा रखा गया। बौद्ध साहित्य मे थावक के लिए उपासक गब्द मिलता है और मभव है, अन्य परपरामो में भी उपासक शब्द प्रयुक्त होता रहा होगा । अस्तु उनसे भिन्नता बताने के लिए 'उपासक' शब्द के साथ 'श्रमण' शब्द जोडा गया हो, जिससे श्रमण भगवान् महावीर के उपासक है, ऐसा स्पष्ट परिनान हो सके। इसमे भगवान् महावीर के दस उपासको का दम अध्ययनो में वर्णन है-१ आनन्द, २ कामदेव, ३ चुलणीपिता, ४ सुरादेव, ५ कुण्डकोलिक, ६ पकडाल पुत्र, ७ महागतक, ८ नदनी पिता, ६ शालनि पिता और १० ततली-पिता-शालिक-पुत्र । ___ इसमे उक्त उपासको के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा और माता-पिता का वणन है। उनके वैभव, भोग-विलास के साधन, दाम-दासी, खेत-मकान व्यापार, वेश-भूपा और रहन-सहन का मा वर्णन है। उनके शहर मे भगवान् के पवारने, समवसरण में जान, धर्म कया सुनने और अपने जीवन को नया मोड देने का, यावक व्रत स्वीकार करने का वर्णन है । श्रावक बनने के बाद उनके जीवन में क्या परिवर्तन आया, अपनी इच्छाओ को कितना सिमित-परिमित किया और रहन-सहन एव व्यापार कैसा रहा, इसका भी उल्लेख है। इसके पश्चात् उनके द्वारा की गई साधना, अत अभ्यास, तपश्चर्या, प्रतिमा, उपसर्ग, सलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान या पादपोपगम अनशन व्रत का उल्लेख है और समाधि मरण के बाद वे किस देवलोक मे गए और देव ऐश्वर्य का भोग करके वे मनुष्य भव मे जन्म लेकर किम प्रकार मुक्ति को प्राप्त करेंगे, इसका विस्तृत वर्णन है । ८ अन्तकृत्दशॉग-सूत्र प्रस्तुत आगम में उन ६० महान्-आत्माओ के जीवन का वर्णन है, जिन्होने अपने जीवन के अन्तिम समय में केवल ज्ञान को प्राप्त करके कर्मों का अन्त किया है, समस्त कर्म-बन्धन से मुक्त-उन्मुक्त हुए है। इसमे उन महान् आत्माओ के नगर, उद्यान, चैत्य, धन-वैभव, माता-पिता एव परिजनो का वर्णन है। इममे यह भी बताया है कि वे किस प्रकार भगवान् के समवशरण मे पहुंचे, और भगवान् का प्रवचन सुनकर उन्हें कैसे वैगग्य हुआ और दीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने किसके सान्निध्य मे श्रुत ३८
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy