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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-प्रन्य जीवन और पॉच महाव्रतो की पच्चीस भावनाओ का वर्णन है। सोलहवे अध्ययन मे हित-प्रद शिक्षाएँ दी गई है।
२ सूत्रकृतांग-सूत्र
प्रस्तुत आगम मे ज्ञान, विनय, क्रिया आदि दार्शनिक विपयो का और अन्य धर्मों एव दर्शनो एव दार्शनिको तथा धर्माचार्यों की मान्यता का विवेचन है। इसमे श्रमण भगवान् महावीर के समय में प्रचलित ३६३ मतो-सम्प्रदायो' की मान्यता के आचार-विचार की जैन परपरा के आचार-विचार के साथ तुलना की गई है और साथ मे यह स्पप्ट कर दिया है कि अहिसा, सत्य आदि महाव्रत धर्म के मूल है, धर्म के प्राण है । अत साधक को अहिंमा आदि की साधना पर श्रद्धा-निष्ठा रखते हुए अपने माध्य को सिद्ध करने का प्रयत्ल करना चाहिए। उसे आठ प्रकार के जाति मद, कुल मद, धर्म मद, वल मद, तप मद, लाभ मद, अधिकार मद और ऐश्वर्य मद का परित्याग करके निरहकार भाव से साधना करनी चाहिए । मद-अहकार आत्मा को पतन के महागर्त मे गिराता है। अत साधक को अपने जीवन मे अहभाव को नही, विनय-नम्रता को स्थान देना चाहिए। वस्तुतः विनय धर्म का भूपण है, माधना का सर्व-श्रेष्ठ अलकार है और समस्त सिद्धियो का दाता है। प्रयम-व तस्कंध
प्रस्तुत आगम भी दो श्रुतस्कधी मै विभक्त है । प्रथम-श्रु तस्कघ मे १६ अध्ययन है । पहला समयाख्य अध्ययन है। इसमे स्व-मत और पर-मत का वर्णन है । इसमे पञ्च-महाभूतवादी (Materialists), आत्माद्वैतवादी (वेदान्ती) तज्जीव-तत्गरीरवादी (Other Materialhsts)-आत्मा और शरीर को एक मानने वाले, अक्रियावादी, आत्मपप्ठवादी, पञ्च-स्कन्धबादी, क्षणिकवादी (बौद्ध), जानवादी, विनयवादी, नियतिवादी (गौशालक), लोकवादी आदि परमत-मतान्तगे के सैद्धान्तिक एव आचार सम्बन्धी दोपो एव भूलो को वताकर स्व-मत अर्थात् अपने सिद्धान्त की पल्पणा की है।
दूसरा वैतालीय अध्ययन है । इसमे हितप्रद और अहितप्रद मार्ग वताया गया है। माधक को हिसा आदि दोपो से युक्त मार्ग का और कपाय भाव का त्याग करके शुद्ध सयम की साधना करनी चाहिए।
तीसरे अध्ययन का नाम उपसर्ग-परिज्ञा है । इसमे यह उपदेश दिया गया है कि साधक को शीत आदि अनुकूल एव प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करना चाहिए। माता-पिता एव स्नेही परिजनो के रागभाव एव विलाप आदि से विकम्पित होकर साधना पथ का त्याग नही करना चाहिए । उपसर्ग से होने वाले आध्यात्मिक एव मानसिक विपाद और कुशास्त्रो एव कुतर्कवादियो के कुतर्को से घायल होकर सयमसाधना से भ्रष्ट नहीं होना चाहिए । साधक को हर परिस्थिति मे धैर्य एव समभाव से समस्त परीपही को सहन करना चाहिए और अपनी श्रद्धा-निष्ठा को मदा विशुद्ध रखना चाहिए।
१ उस युग में प्रचलित ३६३ मत ये है-१८० क्रियावादी, २४ अक्रियावादी, १७ अज्ञानवादी और
३२ विनयवादी। -सूत्रकृताग
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