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________________ आगम साहित्य एक अनुचिन्तन नवम अध्ययन के चार उद्देश है । इसमे एक भी सूत्र नहीं है । गाथाओ मे भगवान् महावीर की साधना का सजीव वर्णन किया है। द्वितीय-श्रु तस्कंध इसमे चार चूलिकाएं और १६ अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन के ग्यारह, द्वितीय के तीन, तृतीय के तीन, चतुर्थ से लेकर सप्तम अध्ययन तक प्रत्येक के दो-दो और शेप नव अध्ययनो मे एक-एक उद्देशक है। प्रथम पिडषणा अध्ययन है, इसमे यह बताया गया है कि साधु को किस तरह का आहार लेना चाहिए और आहार के कितने दोप है । साधु उक्त दोपो से रहित आहार ग्रहण करे । इस अध्ययन मे कुछ अपवादो का भी उल्लेख है। जैसे-यदि दुर्भिक्ष आदि के अवसर पर गृहपति ने मुनि को आहार दिया और अपने द्वार पर अनेक भिक्षुओ को खडे देख कर यह कहा कि तुम यह सब आहार साथ बैठकर खा लेना या सब को वॉट देना। ऐसे जैन साधु अन्य सम्प्रदाय के साधुओ को आहार नही देते और न उनके साथ बैठकर खाते है । परन्तु द्वितीय श्रुतस्कध के दसवे उद्देश मे यह स्पष्ट आदेश दिया गया है कि ऐसे अपवाद मार्ग मे साधु-यदि सव भिक्षु चाहे कि साथ बैठ कर खा ले तो, सब के साथ बैठकर खा ले और यदि वे अपना विभाग चाहते हो, तो उन सवको वरावर विभाग कर दे । इसमे अन्य अपवादो का भी उल्लेख है और अपवाद को भी उत्सर्ग की तरह मार्ग माना है, उन्मार्ग नही । क्योकि अपवादो के लिए आगम मे कही भी प्रायश्चित का विधान नही है। दूसरे अध्ययन मे शय्या के सम्बन्ध मे, तीसरे मे ईर्या-गमन करने के सम्बन्ध मे, चौथे मे भापा के सम्बन्ध मे, पाँचवे मे वस्त्र, छठे मे पात्र, सातवे मे मकान, आठवे मे खडे रहने के स्थान, नवमै मे स्वाध्याय भूमि, दसवे मे उच्चार-पासवण-मल-मूत्र त्यागने की भूमि आदि के सम्बन्ध में बताया गया है कि उसे इनमे सदोषता से बचना चाहिए। इनमे भी कई स्थलो पर अपवाद मार्ग का उपदेश दिया है। चतुर्थ अध्ययन में बताया है कि साधु ने विहार करते समय जगल मे मृग को जाते हुए देखा हो और उसके निकल जाने पर शिकारी वहाँ आ पहुंचे और मुनि से पूछे कि मृग किधर गया है, उस समय मुनि मौन रहे । यदि शिकारी के विवश करने पर उसे बोलना ही पड़े, तो वह जानते हुए भी यह कहे कि मैं नही जानता- "जाण वा णो जाणति वदेज्जा ।" ग्यारहवे और बारहवे अध्ययन मे शब्द की मधुरता एव सौन्दर्य मे आसक्त नहीं होने का उपदेश दिया है । तेरहवे अध्ययन में यह बताया है कि दूसरे व्यक्ति द्वारा की जाने वाली क्रिया मे मुनि को किस प्रकार अपनी प्रवृत्ति करनी चाहिए । चौदहवे अध्ययन मे बताया है कि मुनियो मे परस्पर होने वाली क्रियाओ मे उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए । पन्द्रहवे अध्ययन मे भगवान् महावीर के
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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